जनलोकपाल कानून बनेगा या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है। जहां तक इस कानून से देश में भ्रष्टाचार रुकने का प्रश्न है उस पर अनेक लोग के मन में संशय बना हुआ है। मूल बात यह है कि देश की व्यवस्था में सुधार लाने के मसले कभी नारों से नहीं सुलझते। एक जनलोकपाल का झुनझुना आम जनमानस के सामने प्रायोजित रूप से खड़ा किया गया है ऐसा अनेक लोगों का मत है। हम देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरु होने वाले लोग अब कमजोर होते जा रहे हैं। वह दो भागों में विभक्त हो गया है। पहले यह आंदोलन बाबा रामदेव के नेतृत्व में चला पर बाद में अन्ना हजारे आ गये। बाबा नेतृत्व ने योग शिक्षा के माध्यम से जो ख्याति अर्जित की है उसके चलते उनको किसी अन्य प्रचार की आवश्यकता नहीं रहती। इसलिये जब आंदोलन चरम पर होता है तब भी चमकते हैं और जब मंथर गति से चलता है तब भी उनका नाम छोटे पर्दे पर आता रहता है। अन्ना हजारे आंदोलन के थमने पर अन्य काम कर प्रचार करते हैं। कभी मौन रखकर तो कभी कोई भ्रष्टाचार से इतर विषय पर बयान देकर वह प्रचार में बने रहने का फार्मूला आजमाते हैं। अभी उन्होंने अपने मोम के पुतले के साथ अपना फोटो खिंचवाया तो विदेश की एक पत्रिका के साक्षात्कार के लिये फोटो खिंचवाये। तय बात है कि कहीं न कहीं उनके मन में प्रचार पाने की चाहत है। जहां तक उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का सवाल है तो ऐसा लगता है कि कुछ अदृश्य आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक शक्तियों ने उनकी जिस तरह सहायता की उससे प्रतीत होता है कि प्रायोजित समाज सेवकों ने उनको आंदोलन के शीर्ष पर लाकर अपने मुद्दे को आगे बढ़ाया। पहले वही लोग बाबा रामदेव का दामन थामे थे पर चूंकि उनका योग दर्शन भारतीय अध्यात्म पर आधारित है इसलिये उसमें कहीं न कहीं भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की धर्मनिरपेक्ष छवि ध्वस्त होने का भय था इसलिये एक धर्मनिरपेक्ष समाज सेवक अन्ना हजारे को लाया गया। अन्ना का देश के भ्रष्टाचार पर उतना ही अनुभव है जितना किसी आम आदमी का होता है। इस भ्रष्टाचार की जड़ में क्या है? इसे कैसे रोका जाये अगर हमसे कोई बहस करे तो उसकी आंखें और कान फटे की फटे रह जायेंगे। यह अलग बात है कि चूंकि हम बाज़ार और प्रचार समूहों के स्थापित चर्चा करने योग्य विद्वान न होकर एक इंटरनेट प्रयोक्ता ही है इसलिये ऐसी अनेक ऐसी बातें कह जाते हैं जो वाकई दूसरों के समझ में नहीं आ सकती। हमारे कुछ विरले पाठक और मित्र हैं वही वाह वाह कर सकते हैं। असली बात कहें तो यह तो सभी जानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार है। इसलिये उसे हटाने के तमाम तरह के रास्ते बता रहे हैं पर इसके मूल में क्या है, यह कोई हमसे आकर पूछे तो बतायें।
जब अन्ना हजारे रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे थे तब उनके अनुयायी और सहायक सगंठन जनलोकपाल बिल पर बहस कर रहे थे। अन्ना खामोश थे। दरअसल बिल बनाने में उनकी स्वयं की कोई भूमिका नहीं दिखाई दी। सीधी बात यह है कि एक मुद्दे पर चल रहे आंदोलन और उस संबंध में कानून के तय प्रारूप के लिये वह अपना चेहरा लेकर आ गये या कहें कि प्रायोजित समाज सेवकों को एक अप्रायोजित दिखने वाला चेहरा चाहिए था वह मिल गया। यह अलग बात है कि उस चेहरे पर भी कहीं न कहंी प्रायोजन का प्रभाव था। अब यह बात साफ लगने लगी है कि इस देश में कुछ आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक शक्तियां थीं जो एक प्रभावी लोकपाल बनाने की इच्छुक थीं पर प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय होने कोे लेकर उनकी कुछ सीमायें थीं इसलिये स्वयं सामने न आकर अन्ना हजारे को आगे कर दिया। इन शक्तियों को यह सोच स्वाभाविक था कि प्रत्यक्ष रूप से सक्रियता पर उनको गैरों का ही नहीं बल्कि अपने लोगों का भी सामना करना पड़ सकता है। इसी मजबूरी का लाभ अन्ना हजारे को मिला।
अब मान लीजिये जनलोकपाल बन भी गया तो अन्ना हजारे का नाम हो जायेगा। सवाल यह है कि जनलोकपाल से समस्या हल हो जायेगी। हल हो गयी तो ठीक वरना पासा उल्टा भी पड़ सकता है। जैसा कि कुछ लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि वह भी अगर भ्रष्ट या उदासीन भाव तो निकला तो क्या होगा?
अभी तो भ्रष्टाचार विरोधी कानून के तहत प्रचार माध्यमों के हो हल्ला मचाने पर कार्यवाही हो जाती है और न करने पर संविधानिक संस्थाओं से सवाल पूछा जा सकता है। फिर कई जगह संविधानिक संस्थाऐं स्वयं भी सक्रिय हो उठती हैं। अगर जनलोकपाल बन गया तो फिर प्रचार माध्यम क्या करेंगे जब संविधानिक एजेंसियां अपनी जिम्मेदारी से परे होती नजर आयेंगी। फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध बाकी कानूनों का क्या होगा? क्या वह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे। कहीं ऐसा तो नहीं प्रचार माध्यमों के हल्ले को थामने तथा संविधानिक एजेंसियों की सक्रियता को रोकने के लिये कथित रूप से एक स्वतंत्र जन लोकपाल की बात होती रही। अभी प्रचार माध्यम वर्तमान व्यवस्था के पदाधिकारियों पर बरस जाते हैं पर जनलोकपाल होने पर वह ऐसा नहीं कर पायेंगे। जनलोकपाल भ्रष्टाचार नहीं रोक पाया तो प्रचार माध्यम केवल उसका नाम लेकर रोते रहेंगे और व्यवस्था के पदाधिकारी जिम्मेदारी न निभाने के आरोप से बचे रहेंगे। जब प्रचार माध्यमा किसी के भ्रष्टाचार पर शोर मचायेंगे तो उनसे कहा जायेगा कि जाओ लोकपाल के पास, अगर उसने नहीं सुनी तो भी शोर मचाना मुश्किल होगा क्योंकि तब कहा जायेगा कि देखो उसे लोकपाल ने नहंी पकड़ा है। भगवान ही जानता है सच क्या है? अलबत्ता जिस तरह लग रहा है कि जनलोकपाल बनने के बाद भ्रष्टाचार पर प्रचार माध्यमों में मच रहा ऐसा शोर अधिक नहीं दिखाई देगा। ऐसे में यह पता लगाना मुश्किल होगा कि किसने किसके हित साधे?
जहां तक भ्रष्टाचार खत्म होने का प्रश्न है उसको लेकर व्यवस्था के कार्य में गुणवत्ता तथा संचार तकनीकी की उपयोगिता को बढ़ाया जाना चाहिए। देखा यह जा रहा है कि व्यवसायिक क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रयोग बढ़ा है पर समाज तथा व्यवस्था में उसे इतनी तेजी से उपयोग में नहीं लाया जा रहा है। इसके अलावा अन्य भी उपाय है जिन पर हम लिखते रहते हैं और लिखते रहेंगे। जैसा कि हम मानते हैं कि जनलोकपाल पर आंदोलन या बहस के चलते लोग अपनी परेशानियों के हल होने की आशा पर शोर मचाने की बजाय खामोश होकर बैठे हैं और यही बाज़ार तथा उसके प्रायोजित लोग चाहते हैं। कहीं परेशान लोगों के समय पास करने के लिये ऐसा किसी सीधे प्रसारित मनोरंजक धारावाहिक की पटकथा का हिस्सा तो नहीं है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।