Apr 14, 2013

पैसा कभी गर्मी तो कभी ठंड भी देता है-हिन्दी विशेष रविवारीय लेख (paisa kabhi garmi to kabhee thand deta hai-specail hindi sanday article

               आजकल भारत में बेमौसम क्रिकेट मैच के आयोजन हो रहे हैं।  पहले जब भारत में कोई विदेशी क्रिकेट टीम आती थी तो उसके लिये सर्दी का मौसम तय हुआ करता था। उस काल में  नवंबर से फरवरी तक ही टेस्ट मैचों का आयोजन होता था। भारतीय टीम भी तभी विदेशों में जाती थी जब वहां का मौसम इस खेल के अनुकूल होता था।  जब से इस खेल ने फिल्म और टीवी की तरह मनोरंजक के साथ ही व्यवसायिक रूप लिया है तब से इसका कोई मौसम नहीं रहा।
             कभी देश भक्ति का वास्ता देकर क्रिकेट प्रेमियों को आकर्षित किया गया था। अब शहरों की प्रतिष्ठा का विषय बनाया गया है। तय बात है कि बड़े शहरों के नाम पर बने इन क्लबों के बीच होने वाले व्यवसायिक मैचों को वैसह हार्दिक अभिनंदनीय मान्यता नहीं है जैसे दो देशों के बीच होने वाले मैचों को मिलती थी।  एक सज्जन उस दिन कह रहे थे कि यह क्लबस्तरीय प्रतियोगिता होना देश का गौरव है।  होगी भई, कौन इसका विरोध कर सकता है?  फिर छोटे शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी इस पर अपनी प्रतिकूल टिप्पणियां दे भी तो उसे सुनने वाला कौन है?  क्लब स्तरीय इस प्रतियोगिता से खेल का क्या लेना देना है, यह आज तक समझ में नहंी आया।  कुछ लोगों इसे खेल के विकास के लिये अत्यंत उपयुक्त बताया है। इस पर हंसी आती है।  खेलों का विकास कैसे होता है यह आज तक समझ में नहीं आया।  अगर अधिक से अधिक लोगों उसे खेलने लगें और उसे ही विकास कहा जाये तो भी बात जमती नहीं क्योंकि क्रिकेट खेलने वाले हमारे देश में बहुत सारे लोग हैं।   वह सारे लोग क्रिकेट खेलते हैं जिन्हे मैदान और साथ मिल जाते हैं। अगर खिलाड़ियों को अधिक पैसा मिलना ही विकास है तो फिर प्रश्न आता है कि कितने खिलाड़ियों को यह पैसा मिल रहा है?  पैसा कमाने वालों की संख्या हजार या डेढ़ हजार से ऊपर दिख नहीं सकती। जिस देश में करोड़ों बेरोजगार हों वहां यह संख्या विकास का स्वरूप नहीं दिखाती।
      यह प्रतियोगिता शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये है।  अगर अपने पास समय है।  टीवी पर कोई ढंग का कार्यक्रम नहीं आ रहा हो तब अगर क्रिकेट का अभिनय करते क्रिकेट खिलाड़ियों को देखना बुरा नहीं है।  बीच बीच में विज्ञापनों का भी मनोंरजन आ ही जाता है।  कुछ बिफरे हुए आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के साथ मनोरंजन के क्षेत्र जैसा व्यवहार होना चाहिये।  यह उनका अपना नजरिया है पर एक बात तय है कि गर्मी के मौसम में इस खेल का आयोजन करना कोई सरल काम नहीं है। कहते हैं कि पैसा आदमी में गर्मी पैदा करता है पर जब इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का आयोजन इस तर्क का जनक भी है कि यही पैसा ठंड का काम भी करता है।
   टीवी की बात हो रही है तो आजकल दो कॉमेडी धारावाहिक आते हैं।  दोनों का समय टकराता है। तब चैनल बदल बदल कर उनको देखना पड़ता है।  हमेशा ही अपने साथ बोरियत का सामान लेकर चलने वाले लोगों के लिये  कॉमेडी  अच्छा विषय है।  यह अलग बात है कि कॉमेडी प्रस्तुत करने वाले को भी कुछ विनोदप्रिय होना चाहिये। दोनों कॉमेडी धारावाहिक देखकर लगता नहीं है कि उनके साथ कोई लेखकीय न्याय हो रहा है।  हमारे देश के धनपति साहित्य, कला, खेल, फिल्म और अन्य मनोरंजक व्यवसायों से पैसा तो कमाना चाहते हैं पर उसके लिये प्रतिभाओं की खोज उनके बूते का नहीं है। सच बात तो यह है कि पाश्चात्य व्यवसायी भी पैसा कमाते हैं पर उनकी अपने काम से प्रतिबद्धता होती है। कुछ नया करना उनका मौलिक स्वभाव है।  उनकी यह प्रवृत्ति उनका प्रबंध कौशल बढ़ाती है।  इसके विपरीत भारतीय व्यवसायी पैसा कमाते हैं पर उनकी काम से अधिक कमाई से प्रतिबद्धता रहती है। कुछ नया करने की बजाय वह उपलब्ध व्यवस्था और साधनों का ही उपयोग करते हैं। यही कारण है कि फिल्म और टीवी प्रसारणों में अंग्रेजी फिल्मों और धारावाहिकों की नकल दिखती है।  खास बात यह कि भारत में लेखक को एक दोयम दर्जे का जीव माना जाता है। दूसरी बात यह कि हमारे देश में हिन्दी  मनोरंजक  कार्यक्रम मुबंई में बनते जहां की मूल भाषा भले ही मराठी है पर हिन्दी एक तरह से खिचड़ी भाषा बन गयी है।  यही कारण है कि मुंबईया फिल्म और धारावाहिकों की हिन्दी उत्तर भारत की मूल हिन्दी भाषा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इन दोनों कारणों से हिन्दी कार्यक्रम अमौलिक हो जाते हैं।  बड़े बड़े दिग्गज हिन्दी लेखक हिन्दी फिल्मों में काम करने गये पर बेरंग वापस लौटे आये। इसका कारण यह कि मुंबई के थैलीशाह हिन्दी लेखक के मनोविज्ञान को नहीं समझते।  स्थिति यह है कि इतने सारे हिन्दी धारावाहिक तथा फिल्मों के पुरस्कार वितरण समारोह होते हैं वहां उसे लिखने वाले को सम्मान मिलने वाली घटना सामने नहीं आती। सच बात तो कहें कि हमें लगता है कि इन फिल्मों और धारावाहिकों के कथा, पटकथा और संवाद लेखकों की हैसियत स्पॉट बॉय से अधिक नहीं होगी।  यही कारण है कि भाषा की दृष्टि से हिन्दी कार्यक्रम स्तरीय नहीं होते।  कल्पनाशक्ति का अभाव साफ दिखता है। यही कारण है कि कॉमेडी कार्यक्रमों में पुरुष अभिनेताओं को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर हास्य का भाव पैदा किया जाता है।
               पहले कहा जाता था कि हिन्दी गरीबों की भाषा है। यह अलग बात है कि ऐसा कहने वाले प्रसिद्धि भी हिन्दी में अधिक पाते रहे हैं।  अब हिन्दी वालों के पास पैसा भी खूब है।  यही कारण है कि अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता का प्रसारण हिन्दी में भी हो रहा है। यह भी एक तरह से अंग्रेजी व्यवसायियों की प्रबंध कुशलता का परिणाम है।  जबकि भारतीय मनोरंजन व्यवसायी हिन्दी का खाकर उसे दुत्कारते भी हैं। हिन्दी लेखकों के प्रति असम्मान का भाव रखन उसकी भाषा को दुत्कारने जैसा ही है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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