Jun 29, 2013

केदारनाथ की त्रासदी का मानसिक प्रभाव लंबे समय तक रहेगा-हिन्दी संपादकीय (kedarnath ki trasdi ka lambe samay es rahega-hindi editorial natural calamity in uttrakhand,hindi sampadkiya)



         उत्तराखंड में जो प्रकृति ने महाविनाशलीला मचायी उसमें भारी जन हानि का अनुमान शायद ही पहले किसी ने किया हो।  दरअसल हमारे देश में अनेक तीर्थ हैं जिनमें लाखों लोग शामिल होते हैं।  उत्तराखंड में चार धाम-गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ, और केदारनाथ। भारतीय जनमानस के हृदय में हैं पर बहुत कम लोग यहां जाने को तैयार होते थे।  गंगा और यमुना अत्यंत पवित्र नदियां मानी जाती हैं पर धार्मिक रूप से अकेले इनकी मान्यता नहीं है। नर्मदा और क्षिप्रा भी भगवत् मान्यता वाली मानी जाती हैं।  हरिद्वार की हर की पैड़ी, दक्षिण में तिरुपति बालाजी, मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि, इलाहाबाद का संगम, काशी तथा उज्जैन में लोग तीर्थ करने जाते हैं। कश्मीर में अमरनाथ के दर्शन करने वालों की भी कमी नहीं है। 
      वर्तमान समय में जम्मू का वैष्णोदेवी और शिरडी के सांई बाबा के साथ भी अनेक लोग जुड़े हैं हालांकि इनका भारतीय धार्मिक दृष्टि से सामान्य महत्व है।  वैष्णोदेवी पर फिल्म आशा में गायक चंचल के गाये एक गीत माता ने बुलाया हैकी वजह से वहां के मंदिर का नाम चमक उठा तो सांईबाबा पर फिल्म अमर अकबर ऐंथोनी में उनके मंदिर के  एक गाने में उनके चमत्कारों  गुणगान होने के बाद भक्तों की संख्या बढ़ी। आमतौर से सांईबाबा को धर्मनिरपेक्ष छवि का माना जाता है पर वास्तविकता यह है कि उनको हिन्दू भक्तों की ही भक्ति प्राप्त है।  वैष्णोदेवी और सांईबाबा पर जो भक्तों की भीड़ बढ़ी है उसका आधार कोई  प्राचीन मान्यता नहीं वरन् आधुनिक बाजा़र और प्रचार समूहों की प्रेरणा उसका एक कारण है। 
       ऐसे में चारो धामों में इतनी सारी भीड़ होने देखकर अनेक लोगों को आश्चर्य तब हुआ जब हताहतों की संख्या का अनुमान बताया गया।  इन चारों धामों में पहले जो लोग जाते थे उनके परिवार वाले मालायें पहनाकर विदा करते थे।  माना जाता था कि  जीवन के उत्तरार्ध में की जाने वाली इस यात्रा में आदमी वापस लौटा तो ठीक न लौटा तो समझ लोे भगवान के पास चला गया।  महाभारत काल में पांडवों ने भी अपने अंतिम काल में ही हिमालय की यात्रा की थी।  हरिद्वार या ऋषिकेश तक यात्रा करना अनेक लोगों के लिये अध्यात्मिक शांति का उपाय है पर सच यह भी है कि आज भी हरिद्वार जाने की बात किसी से कही जाये तो वह पूछता है कि घर में सब ठीक तो है न! 
       वहां अपने परिवार के सदस्यों की अस्थियां विसर्जित करने के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से यात्रा अधिक लोग नहंी करते। अगर कर आते हैं तो मान लेते हैं कि उन्होंने इस तीर्थ पर भले ही किसी भी उद्देश्य से आये पर सभी तीर्थ का पुण्य कमा लिया।
             ऐसे में चारों धामो में प्रकृति ने कहर बरपाया तो उससे हताहत  लोगों की संख्या से अधिक हैरानी हो रही है।  दरअसल बाज़ार के पेशेवर यात्रा प्रबंधकों ने वहां हुए सड़क विकास का लाभ उठाया और हर शहर से अनेक लोगों को चारों धामों पर ले जाने लगे।  सड़क और रेल मार्ग से वह पूरा एक प्रस्ताव तैयार कर लोगों को अपना ग्राहक बनाते हैं।  उत्तराखंड दुर्गम है पर वहां बनी सड़कों से बसें जाने लगी थीं।  अनेक बस दुर्घटनाओं की खबर आती रहती थी।  वहां का रास्ता दुर्गम था, अब भी है और रहेंगा।  अनेक बसें जाती थीं।  सभी नहीं गिरी पर नियमित रूप से ऐसी बसों की दुर्घटनाओं की खबरें आती रहती थी।  जो यात्रा कर घर वापस लौटे उनके लिये रास्ता सुगम बना और जो नहीं लौटे वह भूत बनकर किसी को बता नहीं सकते थे कि उन्होंने दुर्गम रास्ते का अनुकरण किया था।  इस आवाजाही के बावजूद अनेंक लोग चारों धामों की यात्रा को सुगम नहीं  मानते थे।  यह अलग बात है कि पहले जब मार्ग दुर्गम दिखता था तब कम लोग जाते थे। वहां सड़क, बिजली और होटलों के निर्माण का लाभ उठाकर  बाज़ार और प्रचार समूह ने धार्मिकता के साथ ही पर्यटन का लाभ दिलाने का बीड़ा उठाया।  जिससे वहां भीड़ बढ़ गयी।  बहरहाल चारों धामों का ऐसा कोई प्रचार नहीं हुआ था कि सामान्य लोगों को सहज विश्वास हो कि आपदा के समय वहां  लाखों की संख्या में वहां श्रद्धालू  होंगे। जब प्रचार माध्यमों ने इसकी पुष्टि की तब ही सच्चाई सामने आयी।
           जो हुआ सो हुआ। प्रकृति का यह प्रकोप है जिसे यह प्रथ्वी अनेक बार सह चुकी है।  इतना जरूर है कि हम धर्म के कर्मकांडों मे रुचि लेते हैं क्योंकि वह प्रत्यक्ष दिखते हैं पर उस अध्यात्मिक ज्ञान पर दृष्टिपात नहीं करते जो कि जीवन की वास्तविकता को बताते हैं।  अध्यात्मिक दृष्टि से इन चारो धामों की यात्रा जीवन के सारे सांसरिक दायित्व पूरे करने के बाद की जाती रही है। संभव है कुछ लोग अपनी शक्ति के कारण इसे पर्यटन की दृष्टि से भी पूर्वकाल में करते रहे हों पर सामान्य आदमी कभी इस पर विचार नहीं  करता था।  दूसरी बात यह कि  हमारे देश में धार्मिक आधार पर पर्यटन के लिये यात्रा करने वाले स्थान है जहां यात्रा की परंपरा है। इधर अमरनाथ यात्रा भी चल रही है।  इस यात्रा में जाने वाले यात्री का पहले स्वास्थ्य परीक्षण तक किया जाता है।  तय बात है कि श्रद्धा की दृष्टि से की जाने वाली यात्रा के लिये श्रद्धालू  का स्वस्थ होना आवश्यक है।  चारों धामों की यात्रा के लिये ऐसी कोई शर्त नहीं रही। इसका कारण यह है कि यहां आने वाले श्रद्धालू को जीवन से मुक्त माना जाता रहा होगा।  यही कारण है कि माला पहनकर जाने वाले श्रद्धालु एक तरह से परिवार तथा समाज से विदा लेकर जाते थे।  इसे गर्मियों के लिये पिकनिक जैसा स्थान भी बनाया गया तो यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है कि पहाड़ियों की यात्रा के लिये जो स्वास्थ्य परीक्षण होना चाहिये वह भी अनिवार्य होना चाहिये था।  आपने देखा होगा कि अनेक लोग संघर्ष करते हुए पहाड़ से जमीन पर उतर आये पर कुछ लोगों ने अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर पैदल चलने से इंकार कर दिया।  अब प्रशासन कह रहा है कि स्वयं उतर कर आओ पर अनेक यात्री इसके लिये तैयार नहीं है।  यह अजीबोगरीब स्थिति है।  पहाड़ियों पर चढ़ने से अधिक उतरने में संकट पैदा होता है।  ऐसे में अस्वस्थ व्यक्ति से इस आपदा में नीचे आने की आशा करना ही व्यर्थ है। 
     बहरहाल इस आपदा ने देश के लोगों का मनोबल हिलाकर दिया है।  कल हम वृंदावन की यात्रा समाप्त कर मथुरा आये। वहां गोंडवाना एक्सप्रेस की एक सामान्य बोगी में खाली जगह देखी। हमने चढ़ने से पहले बोगी को देखा।  वह सामान्य बोगी लग रही थी फिर भी विश्वास नहीं हुआ तो खिड़की पर  अंदर यात्री से पूछा कि ‘‘क्या यह जनरल बोगी है?’’ 
उसने जब हां कहा तब अंदर बैठे। तब उसने सवाल किया कि आपने यह प्रश्न क्योंकि किया। हमने उसे जब बताया कि हमने कभी सामान्य बोगी को कभी इतना खाली कभी नहीं देखा। तब वह बोला-‘‘केदारधाम की त्रासदी के बाद लोगों का मनोबल गिर गया लगता है जिससे यात्रा कम की जा रही है। शायद यही वजह लगती है।’’
      इसमें सच हो न हो पर इतना तय है कि समाज में इस त्रासदी का मानसिक प्रभाव लंबे समय तक रहेगा।


कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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