आज का प्रचार तंत्र एकदम व्यवसायिक है। टीवी, समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं के संचालक संस्थान
विशुद्ध रूप से अर्थतंत्र के उन सिद्धांतों पर आधारित है जिनमें मानवीय सिद्धांतों
का कोई स्थान नहीं है। आजादी के समय अनेक लोगों ने विशुद्ध रूप से देशभक्ति के भाव
से समाचार पत्र पत्रिकायें निकाली थीं पर उसके बाद तो समाज तथा उस पर नियंत्रण
करने वाली इकाईयों पर अपना प्रभाव रखने की प्रवृत्ति ही पत्रकारिता का
उद्देश्य रह गया है।
एक संपादक ने अपना एक रोचक
किस्सा इस लेखक को सुनाया। वह उस समय एक समाचार पत्र में प्रथम या मुख पृष्ठ के संपादक थे, जब केवल एजेंसियों की
खबर ही छपती थीं। वह उन्हें लिखते या
शीर्षक लगाते थे। उनके साथ अनेक नये लड़के
काम करते थे। लड़के उनसे अक्सर यह कहते थे कि
‘साहब, आप हमें नगर समाचार पर काम करवाईये।’
वह कारण पूछते तो यही बताया जाता था कि इससे पुलिस तथा प्रशासन से संपर्क
बनता है जो लाभदायक रहता है।’
यह विचार जब वेतनभोगी कर्मचारियों का हो तो स्वामियों का नहीं होगा यह सोचना
ही बेकार है। वह दौर पुराना था पर अब इस दौर में जब वेतनभोगियों को अपनी नौकरी और
स्वामियों को अपने संस्थान का प्रभाव बनाये रखने की चिंता नित हो तो फिर अधिक
संवेदनशीलता की आशा कम से कम उन लोगों को तो करना ही नहीं चाहिये जो इसके सहारे
प्रतिष्ठा और पद पा लेते हैं। इतना ही नहीं पद पाने से पहले समाज सेवक की भूमिका
और बाद में अपनी सेवा के प्रचार के लिये सभी को प्रचार की आवश्यकता होती है। सच तो
यह है कि प्रचार माध्यमों ने अनेक ऐसे लोगों को नायक बनाया जिनके अपेक्षा वह स्वयं
भी नहंी की।
अंततः प्रचार माध्यमों को जनता में बना रहना है इसलिये हमेशा ही किसी के
सगे बनकर नहीं रह सकते। इसलिये कभी अपने ही बनाये नायक में खलनायक भी देखने लगते
हैं। उन्हें अपनी खबरों के लिये कला, फिल्म, राजनीति, तथा खेल के शिखर पुरुषों से ही अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि शिखर
पुरुषों के जन्म दिन, सगाई, शादी, तलाक और सर्वशक्तिमान के दरबारों मत्था टेकने की खबरें भी प्रचार माध्यमों
में आती हैं। इतना ही नहीं अंतर्जाल पर हजारों आम लोग सक्रिय हैं और उनकी अनेक
रचनायें अद्वितीय लगती हैं पर ब्लॉग, फेसबुक, और ट्विटर पर शिखर पुरुषों की रचनायें ही प्रचार माध्यमों पर सुशोभित होती
हैं। जब तक प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि शिखर पुरुषों को नायक बनाकर उनकी खबरें
बिक रही हैं तब तक तो ठीक है, पर जब उनको लगता है कि अब उन्हें खलनायक दिखाकर सनसनी फैलानी है तो वह यह
भी करते हैं। जब तक शिखर पुरुषों को अपना प्रचार अनुकूल लगता है तब तक वह प्रचार
माध्यमों को सराहते र्हैं, पर जब प्रतिकूल की अनूभूति होती तो वह उन पर आरोप लगाते हैं।
इस पर एक कहानी याद आती है।
रामलीला मंडली में एक अभिनेता राम का अभिनय करता था। आयु बढ़ी तो वह रावण
बनने लगा जबकि उसके पुत्र को राम बनाया जाता था। एक बार इस पर उससे प्रतिक्रिया
पूछी गयी। रामलीला मंडली में काम करने वाले अध्यात्मिक रूप से परिपक्व तो होते ही
हैं। उसने जवाब दिया कि ‘समय की बलिहारी है। मैं कभी राम बनता था अब
रावण का अभिनय करता हूं। यह मेरा रोजगार है। रामलीला मंडली छोड़ना मेरे लिये संभव
नहीं है।’
प्रचार माध्यम भी लोकतांत्रिक लीला में यही करते हैं। पहले नायकत्व की छवि
प्रदान करते हैं और कालांतर में खलनायक का भूमिका सौंप देते हैं। लोकतांत्रिक लीला में जिन्हें नित्य कार्य करना
ही है वह जब नायकत्व की छवि का आनंद लेते हैं तो बाद में उन्हें प्रचार माध्यमों
की खलनायक की भूमिका भी सहजता से स्वीकार करना चाहिये। उन्हें आशा करना चाहिये कि
संभव है कभी उन्हें नायकत्व दोबारा न मिले पर खलनायक की जगह उन्हें सहनायक की भूमिका मिल सकती है जैसे
रामलीला में राम का चरित्र निभाने वाले को को अपने बेटे के लिये दशरथ की भूमिका
मिलती है।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com