Oct 1, 2008

जिन हाथों में था जाम,अब उड़ाते हैं शब्द कबूतर की तरह हर शाम-व्यंग्य कविता

देखता था शराब की नदी में
डूबते-उतरते उस
कलम के सिपाही को
कई बार लड़खड़ाते हुए
उसकी निगाहों में थी
बाहर निकलने के मदद की चाहत
दिखता था किसी बात से आहत
लड़खड़ाती थी जुबां बोलते हुए

कई बार किनारे वह आया
मैने अपना हाथ बढ़ाया
पर लौट जाता था
तब मैं डर जाता था
उसकी सूनी आंखों को
पढ़ते हुए

समय निकलता गया
नदी का दृश्य बदलता गया
अब वह वहां नजर नहीं आता
उसकी यादों से मन भर आता
बढ़ने लगते हैं हाथ कलम की तरफ
पराजित योद्धा की याद कर
जम जाती है मन में बर्फ
मैं बार बार जाता हूं
शराब की नदी के किनारे
उसे देखने की चाहत लिये हुए
मगर बोतल कांच की है तो क्या
उसमें अपना अक्स कौन देख पाता
रात को खुले आसमान की
देखता हूं तो
उसका चेहरा ख्यालों में आता है
नहीं उससे कोई हमदर्दी मेरी
पर उसके शब्दों को उड़ते देखता हूं
जो होते पंख लगाये हुए
शराब की नदी भी
कहीं न कहीं बहती हुई दिखती है
पर वह उसका चेहरा नजर नहीं पाता
पर उसके जिन हाथों में होते ही शाम
होता था जाम
वह नजर आते हैं अब भी
शब्दों को कबूतर की तरह उड़ाते हुए
................................


यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप
................................................

4 comments:

वीनस केसरी said...

एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद


वीनस केसरी

Pawan Nishant said...

अच्छी कविता है। लिखते रहिए, हम आकर पढ़ते रहेंगे।
पवन निशान्त
http://yameradarrlautega.blogspot.com

Udan Tashtari said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है. नियमित लेखन के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाऐं.

प्रदीप मानोरिया said...

जबरदस्त अल्फाज़ भारी बात बधाई हिन्दी चिटठा जगत में आपका स्वागत है निरंतरता की चाहत है मेरा आमंत्रण स्वीकारें मेरे चिट्ठे पर भी पधारे