नजरें ही जिनकी काली हैं
हीरे और पत्थर की नहीं पहचान
पर पारखी के नाम से प्रसिद्ध
लाज लुटने की फिक्र किसे है
यहां तो अपनी आबरु बेचने पर
आमादा है जमाना
नैतिकता बस एक नारा है
लगाने में अच्छा लगता है
पर जो चलता है वह बिचारा है
यह तो इंसान बस चाहता है बनना
पैसा और पद
जिससे हो जाये प्रसिद्ध
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ईमान की बात क्या
आदमी खुद ही बिकने को है तैयार
नहीं मिलते अब आजादी के साथ
जिंदगी गुजारने की चाहत रखने वाले
गुलाम बनने के लिये सब हैं तैयार
इसी चाहते में बनते ं होशियार
कतारें लगी हैं लंबी उनकी
आदमी हो या औरत
इस पर बहस करना है बेकार
ऊंचा उड़ने की ख्वाहिश में
बंधी हैं जंजीरें उनके पांवों में
अपने हों या किराये के पांख
इस पर सोचने में नहीं करते
वह कोई विचार
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1 comment:
भई बहुत ख़ूब
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