इनामों के ढेर बंटते हैं, ढेर की तरह खड़े शब्दों का अर्थ मौन है।।
कहानी, कविता, व्यंग्य और निबंध में छाये हैं वही चरित्र
बाजार में छाये हैं जिनके चेहरे, पर उनसे ऊबता कौन है।।
भड़के हुए लगते हैं शब्द, पर अर्थ है समझ से परे
बाजार में जो बिका वही हुआ प्रसिद्ध, घर में रहा वह मौन है।।
तौल तौल कर लिखना, बोल बोलकर का खुद ही बड़ा दिखना
बिकने के लिये लगी गुलामी की दौड़, आजादी चाहता कौन है।।
फिर भी यह सच है कि बाजार में बिका आखिर सड़ जाता है
जब शब्द हो जाता शय, उसका भाव हो जाता मौन है।।
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1 comment:
बहुत ही अच्छी कविता, उम्दा भाव
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