Sep 26, 2010

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ-हास्य कविता (loktantra ka chautha stambh-hasya kavita)

समाज सेवक ने कहा प्रचारक से
‘यार, तुम भी अज़ीब हो,
अक्ल से गरीब हो,
हम चला रहे गरीबों के साथ तुमको भी
करके अपनी मेहनत से समाज सेवा,
वरना नहीं होता कोई तुम्हारा भी नाम लेवा,
हमारी दम पर टिका है देश,
हमारी सुरक्षा व्यवस्था की वजह से
कोई नहीं आता तुमसे बदतमीजी से पेश,
फिर भी तुम हमारे भ्रष्टाचार के किस्से
क्यों सरेराह उछालते हो,
अरे, आज की अर्थव्यवस्था में
कुछ ऊंच नीच हो ही जाता है,
तुम क्यों हमसे बैर पालते हो,
बताओ हमारा तुम्हारा याराना कैसे चल पायेगा।’

सुनकर प्रचारक हंसा और बोला
‘क्या आज कहीं से लड़कर आये हो
या कहीं किसी भले के सौदे से कमीशन नहीं पाये हो,
हम प्रचारकों को आज के समाज का
चौथा स्तंभ कहा जाता है,
हमारा दोस्ताना समर्थन
तुम्हारा विरोध बहा ले जाता है,
फिर यह घोटाले भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिये नहीं
हिस्से के बंटवारा न होने पर
उजागर किये जाते हैं,
मिल जाये ठीक ठाक तो
जिंदा मामले दफनाये भी जाते हैं
तुम्हारे चमचों ने नहीं किया होगा
कहीं हिस्से का बंटवारा
चढ़ गया हो गया मेरे चेलों का इसलिये पारा,
इतना याराना मैंने तुमसे निभा दिया
कि ऐसी धौंस सहकर दिखा दिया,
बांध में पानी भर जाने पर
उसे छोड़ने की तरह
हिस्सा आगे बढ़ाते रहो
शहर डूब जाये पानी में
पर हम उसे हंसता दिखायेंगे
लोगों को भी सहनशीलता सिखायेंगे
पैसे की बाढ़ में बह जाने का
खतरा हमें नहीं सतायेगा,
वह तो रूप बदलकर आंकड़ों में
बैंक में चला जायेगा,
रुक गया तो
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
टूटकर तुम पर गिर जायेगा।’’
----------

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sep 20, 2010

कश्मीर में पत्थर फैंकने का व्यापार-हिन्दी व्यंग्य (kashmir mein patthar fainkne ka vyapar-hindi vyangya)

पत्रकारिता जगत के गुरुजी और लेखन जगत के एक मित्र ने ऐसा भूसा हमारे दिमाग में भर दिया है कि सम सामयिक घटनाओं पर लिखते ही नहीं बनता क्योंकि जब सभी विद्वान जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रों के आधार पर अपने विचार व्यक्त करते हैं तब हम सोचते हैं कि ‘आखिर, घटनाओं के पात्रों के पास धन कहां से आता है? हालत यह है कि किसी शहर में उपद्रव हो तो हम सोचते हैं कि आखिर दंगाईयों को धन कहां से मिला होगा? किसी टीवी चैनल पर कोई प्रतियोगिता हो तो भी हम अपने हिसाब से जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार विचार करते हुए देखते हैं कि किस समूह का आदमी इसके लिये धन दे रहा है? संभव है यह हमारी संकुचित मानसिकता का प्रमाण हो पर जब कश्मीर में पैसा लेकर सुरक्षा कर्मियों पर पत्थर फैंकने और धर्म आधारित विरोधी नारे लगाने की बात हमारे सामने आई तो ऐसा लगा कि इस पर लिखना चाहिये।
हमने एक मित्र को बताया था कि हमें अंतर्जाल पर लिखने का एक पैसा भी नहीं मिलता तो वह यकीन नहीं कर रहा था। हमने बताया था कि कुछ तो पागल होते हैं जो मुफ्त में काम करते हैं तो कुछ धर्मात्मा भी होते हैं जो यह सोचकर अपना अभियान चलाये रहते हैं कि हमारा क्या जाता है?
यकीनन समाज में इन दोनों की संख्या नगण्य होती है और आज के युग में तो यह सोचना भी मूर्खता है कि कोई बिना पैसे किसी का काम करेगा चाहे वह गोली चलाने का हो या पत्थर फैंकने का! लिखने वाले बहुत लोग हैं जो कश्मीर पर लिखते हैं। पहले जब कश्मीर पर हम लेख पढ़ते थे तो लगता था कि इस मुद्दे को कोई सैद्धांतिक पहलू होगा जो हमारी समझ से परे है।
सच तो यह है कि तब हम सोचते भी नहीं थे पर जब अंतर्जाल पर अपना लिखने का अभियान प्रारंभ किया तो पता चला कि हमारे गुरुजी और मित्र का बताया हुआ फार्मूला हमारे अंदर इस तरह घुसा हुआ है कि उससे मुक्त नहीं हो सकते। लिखते लिखते चिंतन थोड़ा ठीकठाक हो गया पर वह सिमट गया पैसे के इर्दगिर्द! कई बार अपने से पूछते हैं कि बिना पैसे क्यों लिखते हैं? जवाब भी स्वयं को देेते हैं कि अपनी अभिव्यक्ति कई वर्षों से दबी पड़ी है और उसे यहां लाने के लिये प्रायोजक भी स्वयं ही बनना पड़ेगा और सारी दुनियां में चल रहे पैसे के खेल को धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र का शीर्षक देने वाले प्रायोजित विद्वानों को चुनौती देने का यही एक माध्यम है।
जिन लोगों ने हम हमारे फालतु चिंतनों को पढ़ा है वह जानते हैं कि आतंकवाद को हम विशुद्ध व्यापार मानते हैं। चाहे कितना भी समझा लो पर हम यह मानने वाले नहीं है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आंतकवाद से जुड़े पात्र तथा उनके प्रायोजकों को इससे कोई आर्थिक फायदा नहीं होता। नक्सलवाद पर लिखा तो कुछ लोग बुरा मान गये पर इस बात का जवाब नहीं दिया कि ‘आखिर उनके पास बंदूकें कहां से आती है। उनके खाने, पीने और पहनने का खर्चा कौन उठाता है? जो बंदूकें दे रहे हैं वह रोटी क्यों नहीं देते?’
एक ने लिखा कि पड़ौसी देश भारत में अस्थिरता फैलाने के लिये दे रहे हैं। हमारा जवाब है कि पड़ौसी देश जिस तरह भ्रष्टाचार में आकंठ हमारी तरह डूबे हुए हैं उससे यह तर्क भी नहीं जमता क्योंकि उनके साथ हमारे प्रत्यक्ष रूप से एक नंबर के आर्थिक संबंध न हों पर अप्रत्यक्ष रूप से दो नंबर का संपर्क खूब है। सीधी बात यह है कि पुलिस और प्रशासन का ध्यान आतंकवाद की तरफ लगा रहे और दो नंबर के धंधे चलते रहें इसलिये ही यह कथित आतंकवाद खड़ा किया गया है और दुनियां के सभी राष्ट्राध्यक्ष एक होकर उसके मुकाबले की बात करते हैं पर एक होते नहीं क्योंकि दुनियां के एक और दो नंबर के आर्थिक पुरुष कहीं न कहीं उनके भी सहायक हैं। इसलिये आतंकवाद को भी भिन्न भिन्न कोणों से देखा जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच निजी क्षेत्र में दो नंबर का कितना व्यापार है इसकी जानकारी नहीं मिलती पर यहां की फिल्में वहां दिखाई जा रही हैं जो इस बात का प्रमाण है कि कुछ न कुछ तो है।
हमने यह बात कभी अखबार में ही पढ़ी थी कि जहां आतंकवाद बढ़ता है वहीं तस्करी आदि का काम जोरों पर हो जाता है। इस पर हमने एक लेख लिखा था तो एक विद्वान टिप्पणीकार ने अपनी टिप्पणी में पूर्वोत्तर के आतंकवाद का जिक्र करते हुए बताया था कि वहां ऐसा ही हुआ है। बहस लंबी खींचने की बजाय हम एक कल्पना करें कि भारत में कहीं आतंकवाद न हो तो?
भारत यकीनन विदेशों से हथियार नहीं खरीदेगा?
तस्करों की तस्करी बंद हो जायेगी।
सभी का ध्यान केवल देश के सामान्य मुद्दों पर होगा तो विदेशों से संबंधों पर कौन ध्यान देगा? कौन अमेरिका और ब्रिटेन की परवाह करेगा?
कश्मीर और आतंकवाद पर बनने वाली ढेर सारी फिल्मों को कौन देखेगा? याद रखिये आतंकवाद पर बनी अनेक फिल्में हिट हो गयी और उन्होंने खूब पैसा कमाया। यह फिल्में हॉलीवुड और वॉलीवुड में खूब बनी और अगर यह आतंकवाद न होता दोनों फिल्मी क्षेत्रों का अर्थशास्त्र गड़बड़ा जाता।
क्रिकेट में पाकिस्तान के खिलाफ अन्य देशों के साथ मैच में कौन सट्टे लगायेगा। पाकिस्तान के खिलाड़ी स्वयं हारने के साथ ही दूसरे देशों के खिलाड़ियों को नायक बनाते हैं जो अपने देश की कंपनियों के विज्ञापन कर न केवल पैसा कमाते हैं बल्कि उनका व्यापार भी बढ़ाते हैं। शायद इसलिये उनको फिक्सिंग का पैसा मिलता है?
हमें पैसा नहीं मिलता पर लिखते हैं पर जिस मुद्दे में पैसा न दिखे उस पर नहीं लिखते। कुछ टीवी पर देखा और कुछ अंतर्जाल पर पढ़ा। उससे पता लगा कि पहले कश्मीर में पत्थर फैकने और धर्म आधार पर विरोधी नारे लगाने के लिये दो तीन सौ रुपये मिलते थे अब पंद्रह सौ मिलने लगे है-लगता है कि वहां उनको भी कोई वेतन आयोग होगा। यकीन मानिए इसका कोई आर्थिक लाभ उठायेगा।
प्रसंगवश कश्मीर के बारे में एक जगह पढ़ने को मिला था कि वहां की एक अलगाववादी महिला नेता अपने बच्चे को विदेश में पढ़ने भेजने के लिये भारतीय पासपोर्ट मांग रही है। वह पाकिस्तान से भी पासपोर्ट ले सकती थी पर चूंकि वह देश संदिग्ध है और संभव है कि विदेश में उसे शक की नज़र से देखा जाता इसलिये उसे भारतीय पासपोर्ट चाहिए। यानि अपने काम के लिये उसे भारत नाम की जरूरत है। यह महिला नेता कश्मीर के बच्चों के भारतीय शिक्षा से दूर रहने के लिये कहती थी पर उसका लड़का पढ़ा और विदेश जाना चाहता है। यानि उसका आंदोलन से जुड़ा होना किन्ही स्वार्थों की वजह से ही है।
सीधा मतलब यह है कि कश्मीर मुद्दे में देखने वाले जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के आधार देखते फिरें पर हम तो अर्थशास्त्र के अनुसार चलते हैं। यह पत्थर फैंकने या फिंकवाने का काम किसी आर्थिक लाभ के कोई करता होगा इस पर यकीन करना वैसे भी कठिन है। कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिश करने के प्रयास किये जा रहे हैं पर वह धरती से तो अलग नहीं हो सकता और न ही वहां के लोग कोई अलग हैं। भले लोगों की कहीं कमी नहीं है और कश्मीर में भी नहीं होगी पर यकीनन पत्थर फैंकने और फिंकवाने वाले लोगों ने उनके अस्तित्व को नकार रखा है। अगर ईमानदारी से कश्मीर की समस्या का हल करना है तो वहां से विस्थापित पंडितों की वापसी जरूरी है। दूसरी बात यह कि पाकिस्तान के पास कश्मीर के हिस्से के अलावा भी अन्य हिमालयीन क्षेत्र हैं जो बहुत समृद्ध हैं जहां उसने सत्यानाश कर दिया है इसलिये उसके बराबरी के व्यवहार की बजाय ताकत से बात करना चाहिये। वहां के सैन्य शासकों ने अपने धन कमाने और कश्मीर सहित हिमालयीन क्षेत्र के लोगों का शोषण इतना किया है कि वह इन्हीं पत्थर फैंकने के व्यापारियों की वजह से चर्चा में नहीं आ पाता। संभव है हिमालयीन क्षेत्र के शोषक अपना धंधे को दुनियां की नज़र बचाने के लिये यह पैसा देते हों। भारत जो हथियार खरीदता है तो उससे भी दुनियां का बहुत बड़ा व्यापार तो चल ही रहा है। संभव है हथियार बेचने वाले व्यापारी या उनके दलाल भी इस आतंकवाद को जारी रखने के पक्षधर हों। वह मदद करते हैं या नहीं यह तो प्रचार माध्यमों को देखना होगा क्योंकि उनके प्रसारणों पर ही तो आम लेखक लिख पाते हैं।
--------
कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

jammu-kashmir,trading of stone throne,india and pakistan,aritcle on jammo kashmir

Sep 12, 2010

खौफजदा शहर-हिन्दी शायरी (khaufzada shahar-hindi shayari)

पूरा शहर खौफजदा लगता है,
कायर बहशियों ताकतवर समझकर
सभी कांप रहे हैं,
अपनी हस्ती मिट जाने का डर
इस कदर लोगों में समा गया है कि
पेड की डाली के गिरने की
आवाज सुनकर ही हांफ रहे हैं।
हैरानी इस बात की है कि
पहरेदार सज रहे उनके घर
जो हैवानियत के सांप पाले रहे हैं।
-------

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Sep 2, 2010

असलियत-हिन्दी शायरी (asliat-hindi shayri)

कुछ लोग
वाह वाह करते हुए
हंसते सामने आते हैं,
कुछ ताने देते हुए
रुंआसे भी नज़र आते हैं।
लगा लिये हैं सभी ने मुखौटे चेहरे पर
अपनी नीयत यूं छिपा जाते हैं,
कमबख्त! यकीन किस पर करें
लोग खुद ही अपनी असलियत छिपाते हैं।
-----------
कोई भी मुखौटा लगा लो अपने चेहरे पर
दूसरा इंसान तुम पर यकीन नहीं करेगा,
मगर तुम अपनी नीयत और असलियत
अपने से छिपा लोगे
तब तुम्हारा ज़मीर किसी का कत्ल करते हुए भी
तुमसे नहीं डरेगा।
-----------------

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन