पत्थरों के घर
दीवारें रंगीन हैं,
लकड़ी और लोहे के सामान से
सजी बैठक,
खिड़की से सर्दी की धूप अंदर झांक रही है,
उसके स्पर्श का आनंद
ले सकता है कौन।
कहें दीपक बापू
जिनके दिल में स्पंदन है
बस अपनी चाहतों के लिए,
दिमाग में बसी है
सामानों को खोजने की योजनाएं,
प्रकृति उनकी नज़र में एक अमर मुर्दा है
उन मांस के बुतों की
संवेदनाएँ हैं मौन।
------------------कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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