हर पल हादसों का अंदेशा छाया हर शहर में हैं,
इंसान और सामान के खोने का खतरा दिन के हर
पहर में है।
कहें दीपक बापू तरक्की का पैमाना कभी नापा
नहीं
ऊंचे खड़े बरगद गिरने के किस्से आंधियों के
कहर में हैं।
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दायें चलें कि बायें या रुकें कि दौड़ें
समझ में नहीं आता,
सड़क पर चलती बदहवास भीड़ चाहे जो किसी से
टकराता।
कहें दीपक बापू एक हाथ गाड़ी पर दूसरे में
रहता मोबाईल
लोग आंखें से रिश्ता निभायेंगे या कान से
समझ में नहीं आता।
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हम सावधानी से चलते हैं क्योंकि घर पर कोई
इंतजार करता है,
मगर उसका क्या कहें जो हमारे लिये हादसे
तैयार करता है।
कहें दीपक बापू नये सामानों ने इंसान को
कर दिया बदहवास
खुद होता है शिकार या दूसरे पर वार करता
है।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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