कौन
सोचता है जिस जमीन पर
आज
हम खड़े हैं
कल
पाताल में धंस जायेगी।
चलते
है चाल शतरंज की बिसात पर
पता
नहीं लगता
कौनसी
हमें हार के कगार में फंसायेगी।
ख्वाहिशों
की फेहररिसत बढ़ी है जमाने की
नहीं
जानते लोग
अधूरी
रहने पर वही सतायेगी।
कहें
दीपक बापू बिखरे हैं सभी लोग
सपनों को साकार करने के लिये
तानाबाना
बुनने में लगे हैं
खौफ
भी बसा है दिल में
पता
नहीं कौनसी डोर कब टूट जायेगी।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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