Jan 29, 2012

प्रकृति और संवेदनाएँ-हिन्दी कविता (prakrati aur samvedanen-hindi kavita or poem)

पत्थरों के घर
दीवारें रंगीन हैं,
लकड़ी और लोहे के सामान से
सजी बैठक,
खिड़की से सर्दी की धूप अंदर झांक रही है,
उसके स्पर्श का आनंद
ले सकता है कौन।
कहें दीपक बापू
जिनके दिल में स्पंदन है
बस अपनी चाहतों के लिए,
दिमाग में बसी है
सामानों को खोजने की योजनाएं,
प्रकृति उनकी  नज़र में एक अमर मुर्दा है
उन मांस के बुतों की
संवेदनाएँ हैं मौन।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Jan 21, 2012

तड़प-हिन्दी शायरियाँ (hindi shayriyan)

भीड़ का शोरशराबा देखकर
अब अपनी तन्हाई की तड़प नहीं सताती है,
कहें दीपक बापू
अकेलेपर से घबड़ाये लोग
ढूंढते हैं मेलों में खुशी का सामान
खरीदते ही हो जाता जो पुराना
फिर दौड़ते हैं दूसरी के लिये
उम्र उनकी भी ऐसे ही
तड़पते बीत जाती है
....................................
उन दोस्तों के लिये क्या कहें
जिनसे छिपने की कोशिश हम करें
वह हमारे ठिकानों को ढूंढ ही डालते हैं,
कहें दीपक बापू
अपना चेहरा लेकर
बदल बदल कर अदाएँ
वह हर जगह सामने आते हैं
जिनसे मिलना हमेशा हम टालते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 10, 2012

सेवक और पहरेदार-हिन्दी हाइकु (sewak aur paharedar-hindi haiku or kaivta)

उनके पेट
कभी नहीं भरेंगे
जहरीले हैं,

रोटी की लूट
सारे राह करेंगे
जेब के लिए,

मीठे बोल हैं
पर अर्थ चुभते
वे कंटीले हैं।
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फिर आएंगे
वह याचक बन
कुछ मांगेंगे,
दान लेकर

वह होंगे स्वामी

हम ताकेंगे,

हम सोएँ हैं
बरसों से निद्रा में
कब जागेंगे,

सेवक कह
वह शासक होते
भूख चखाते

पहरेदार
अपना नाम कहा
लुटेरे बने

लूटा खज़ाना
आँखों के सामने है
कब मांगेंगे।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 7, 2012

श्रीमद्भागवगत गीता और अर्थशास्त्र-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (shri madbhagwat gita and economics or shri madbhagvat geeta aur arthshastra-hindi vyangya chinttan lekh or satire thought article)

                कथित रूप से एक अर्थशास्त्री और लंदर स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के एक भारतीय प्रोफेसर का मानना है कि गीता का उदाहरण पेश कर अहिंसा की बात नहीं की जा सकती है। उनका यह भी है कि गीता का अंतिम अर्थ यही निकलता है कि हर आदमी एक दूसरे को मारने के लिये निकल पड़े। योग साधना में रत गीता साधकों के लिये यह बयान हास्यासन करने के लिये एक उपयुक्त विषय हो सकता है। जब गीता के विषय पर किसी के अनर्गल बयान पर लिखने का मन आता है तो लगता है कि एक जोरदार हास्य व्यंग्य लिखा जाये पर यह संभव नहीं होता क्योंकि तब उसमें वर्णित कुछ बातों का अनचाहे जिक्र कर यह बताना पड़ता है कि उसके संदेश आज भी प्रासंगिक हैं तब चिंत्तन अपना काम करने लगता है। वैसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान का केवल उनके भक्तों में ही प्रचार करें पर हम इस आज्ञा का यह देखकर उल्लंघन कर जाते हैं कि बरसों से इस संसार में विराजी श्रीमद्भागवत गीता को पहले तो लोग अपने घर में स्वयं के धाार्मिक होने के प्रमाण में ही रखते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिये हाथ भी लगाते हैं तो अध्ययन करने के बाद उसे नहीं समझ पाते तब हमारे लिखने से कुछ होने वाला नहीं है। हमने लिखा पर मान लेते हैं कि कुछ नहीं लिखा।
              प्रोफेसर साहब महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों पर बोलने के लिये बुलाया गया था। उनका यह मानना था कि जो गांधी श्रीगीता के प्रशंसक थे वह अहिंसा के प्रवर्तक नहंी माने जा सकते क्योंकि वह हिंसा के लिये प्रेरित करती है। एक बात निश्चित है कि भारतीय होकर विदेश के किसी विश्वविद्यालय से जुड़े होने के अलावा उन प्रोफेसर की दूसरी कोई योग्यता नहीं हो सकती। यहां अर्थशास्त्र के ज्ञाता बहुत हैं पर प्रसिद्ध सभी नहीं है। बाज़ार और प्रचार प्रबंधक केवल उन लोगों को अपने मंचों पर स्थान देते हैं जो या तो स्वयं ही कला, साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज सेवा तथा फिल्म में लोकप्रियता कर चुके हों या फिर किसी विदेशी संस्था से जुड़े होने के साथ ही विदेश से सम्मान प्राप्त हों। अपनी तरफ से किसी व्यक्ति को महान बनाना उनका लक्ष्य नहीं रहता। यह प्रोफेसर साहब भी इसी तरह के रहे होंगें। उन्होंने न कभी गीता पढ़ी है न पढ़ेंगे। संभव है कि भारतीय धर्म को बदनाम करने के लिये श्रीगीता पर बहस छेड़ने का नाम इस तरह का तरीका अपनाया गया हो। हमने उन प्रोफेसर साहब का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि लगता है कि प्रचार कर्म में फिक्सिंग का खेल भी चलता है और हमें यहां लिखने का कोई आर्थिक लाभ-इसे कर्म फल से मत जोड़ियेगा-नहीं है। इसलिये किसी विषय के समर्थन या आलोचना में किसी का नाम नहीं लिखते।
         श्रीमद्भागवत गीता पर हमारे कई चिंत्तन हमारे बीस ब्लॉग पर लिखे जा चुके हैं। उनमें हम एक जगह लिख चुके हैं कि महाभारत युद्ध के दौरान जितनी भी हिंसा हुई वह भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सिर पर ली थी। गांधारी के शाप को शिरोधार्य किया। उनके द्वारका शहर का पूरा परिवार और प्रजा नष्ट हो गयी। अंततः उन्होंने एक शिकारी का बाण अपने पांव पर लेकर देह यहीं त्याग कर परमधाम गमन किया। श्रीमद्भागवत गीता के उपदेश के समय उन्होंने अर्जुन को यह स्पष्ट कहा था कि इस हिंसा का पाप तुम मुझे समर्पित करो। अर्जुन ने जब परमधाम गमन करते हुए युधिष्ठर से अपनी गति का कारण पूछा तो उसके उत्तर में उन्होंने यह नहीं कहा कि महाभारत युद्ध की हिंसा का अपराध उनकी दुर्दशा का कारण है। स्पष्टतः श्रीकृष्ण ने उस हिंसा को अपनी अवतारी देह पर इसलिये लिया क्योंकि वह उन्होंनें धारण की थी। अब भगवान श्रीकृष्ण ऐसी हिंसा का अपराध लेने के लिये कोई सदेह उपस्थित नहीं है-यह अलग बात है कि वह आज भी भारतीय जनमानस में विराजे हैं-जिससे कि वह अपने भक्तों की हिंसा का हिसाब चुकायें। इतनी बात तो हर भारतीय ज्ञानी जानता है इसलिये कभी अपने संदेश से किसी को हिंसा के लिये प्रेरित नहीं करता।
        जब वह प्रोफेसर विदेश में कार्यरत हैं तो तय बात है कि वहां के वातावरण का ही उन पर प्रभाव होगा। चेले चपाटे और संगी साथी भी ऐसे ही होंगे जो श्रीगीता के बारे में इधर उधर से सुनकर अपनी राय बनाते होंगे। उनकी सोच महाभारत युद्ध से पहले श्रीकृष्ण के अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करने के लिये उपदेश देने की घटना लगने के साथ ही युद्ध के बाद हुए परिणामों पर ही केंद्रित होती है। ऐसे में उनकी बात पर बहस छेड़ना भी मूर्खता है। यह अलग बात है कि कहीं भारतीय धर्म गंथों कोे बदनाम करने के लिये कहीं कोई प्रचार योजना फिक्स हुई हो। अभी रूस में इस्कॉन के संस्थापक के गीता संस्करण पर रोक का मामला सामने आया था तब प्रचार तंत्र ने खूब उसे भुनाया।
     सच बात कहें तो आधुनिक अर्थतंत्र और अर्थशास्त्रियों के लिये श्रीगीता के संदेश विष की तरह हैं। अर्थशास्त्रियों के लिये हीं वरन् शारीरिक विज्ञान शास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र तथा तमाम शास्त्रों का ज्ञान भी श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित है। अगर श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने वाले कहंी लोग पूरे विश्व में अधिक हो गये तो आधुनिक ज्ञान शास्त्रियों को मूर्ख समझने लगेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में योग का प्रचार किया है जिसके आठ भाग हैं। उनमें एक यम भी है जिसमें अहिंसा तत्व प्रमुख रूप से बताया जाता है। ऐसे में श्रीगीता के साथ महाभारत युद्ध को जोड़ना गलत है।
        अपने को लेकर हमें कोई खुशफहमी नहंी है पर हम भी क्या करें? जब श्रीगीता को लेकर विवाद उठता है तो हमारा ध्यान उस आदमी के नित्य कर्म की तरह जाता है। वह जिस विषय या विद्या का ज्ञाता हो हम उसे श्रीगीता के संदेशों में देखने लगते हैं। तब लगता है कि जैसे सारे विषय श्रीमद्भागवत गीता में समाहित हैं।
आखिरी बात यह कि आधुनिक अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि उसमें दर्शनशास्त्र का अध्ययन नहीं किया जाता। इसका सीधा मतलब यह है कि उन प्रोफेसर साहब ने गीता को नहीं पढ़ा। हमने उनका नाम इसलिये भी नहीं लिखा क्योंकि अगर हमारा यह विचार कोई उनको बता दे कि श्रीमद्भागवत् गीता का ज्ञान हो जाये तो सारे एक ही आदमी सारे शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है। उसमें कहीं दर्शनशास्त्र भी हो सकता है पर इतना तय है कि उसमें जो अर्थशास्त्र के सिद्धांत है वह कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकते। ऐसे में प्रोफेसर के प्रायोजक और समर्थक कहीं उनको सही साबित करने के लिये कोई बड़ी प्रायोजित बहस न करा दें। बहरहाल जिन लोगों को श्रीमद्भागवत गीता पर हमारे विचार पढ़ना हो वह दीपक भारतदीप और श्रीमद्भागवत गीता शब्द डालकर सर्च इंजिनों मे ढूंढ सकते हैं। एक गीता साधक के रूप में हमेशा ही ऐसे लोगों की बातें हैरान करती हैं जो उसे पढ़ते बिल्कुल नहीं और पढ़ते हैं तो समझते नहीं और समझते हैं तो सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते क्योकि वह उनकी धारणा शक्ति से परे होती है। हम परेशान नहीं होते क्योंकि एक गीता साधक में इतनी शक्ति तो आ ही जाती है कि वह ऐसी बातों से विचलित नहीं होता। ब्लॉग पर श्रीमद्भागत गीत के विषय पर लिखने का जब अवसर उपस्थित होता है तो लगता है कि यह सौभाग्य हमें ही मिल सकता है।
इस विषय पर इस लेखक का यह ब्लॉग और उसका पाठ अवश्य पढ़ें।  
सामवेद से संदेश-तुम प्रतिदिन युद्ध करते हो (samved-tum pratidin yuddh karte ho-samved se sandesh)
           श्रीमद्भागवत गीता के आलोचक उसे युद्ध से उपजा मानकर उसे तिरस्कार करते हैं पर शायद वह नहीं जानते कि आधुनिक सभ्यता में भी युद्ध एक व्यवसाय है जिसे कर्म की तरह किया जाता है। सारे देश अपने यहां व्यवसायिक सेना रखते हैं ताकि समय आने पर देश की रक्षा कर सकें।
         भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय श्री अर्जुन से कहा था कि अभी तू युद्ध छोड़ देगा पर बाद में तेरा स्वभाव इसके लिये फिर विवश करेगा। अर्जुन एक योद्धा थे और उनका नित्य कर्म ही युद्ध करना था। जब श्रीकृष्ण उसे युद्ध करने का उपदेश दे रहे थे तो एक तरह से वह कर्मप्रेरणा थी। मूलतः योद्धा को क्षत्रिय माना जाता है। इसे यूं भी कहें कि योद्धा होना ही क्षत्रिय होना है। इसलिये श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म प्रेरणा दी है यह अलग बात है कि युद्ध करना उसका स्वाभाविक कर्म था। श्रीमद्भागवत में कृष्ण यह भी कहते हैं कि अपने स्वाभाविक कर्म में लगा कोई भी व्यक्ति हो-कर्म के अनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य और शुद्र का विभाजन माना जाता है-मेरी भक्ति कर सकता है। इस तरह श्रीमद्भागवत गीता को केवल युद्ध का प्रेरक मानना गलत है बल्कि उसके अध्ययन से तो अपने कर्म के प्रति रुचि पैदा होती है। इसी गीता में अकुशल और कुशल श्रम के अंतर को मानना भी अज्ञान कहा गया है। आजकल हम देखते हैं कि नौकरी के पीछे भाग रहे युवक अकुशल श्रम को हेय मानते हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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अभि विश्वानि काव्या
‘‘सारे सुकर्म कर।’
दिवे दिवे वाजं सस्निः।
‘‘प्रतिदिन तुम युद्ध करते हो।’’
मो षु ब्रह्मेव तन्द्रर्भवो।
‘‘आत्मज्ञानी बनकर कभी आलसी मत बनना।’’
             मनुष्य अपनी देह पालन के लिये कर्म करता है जो युद्ध का ही रूप है। हम आजकल सामान्य बातचीत में यह बात मानते भी हैं कि अब मनुष्य का जीवन पहले की बनस्पित अधिक संघर्षमय हो गया है। जबकि हमारे वेदों के अनुसार तो हमेशा ही मनुष्य का जीवन युद्धमय रहा है। जब हम भारतीय अध्यात्म में वर्णित युद्ध विषयक संदर्भों का उदाहरण लेते हैं तो यह भी देखना चाहिए कि उन युद्धों को तत्कालीन कर्मप्रेरणा के कारण किया गया था। इतना ही नहीं इन युद्धों को जीतने वाले महान नायकों ने अपने युद्ध कर्म का नैतिक आधार भी प्रस्तुत किया था। वह इनको जीतने पर राजकीय सुविधायें भोगने में व्यस्त नहीं हुए वरन् उसके बाद समाज हित के लिये काम करते रहे।
      संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।