अंतर्जाल पर सामाजिक संपर्क जिसे हम सोशल
मीडिया कह रहे हैं उसके प्रभावों पर इस समय देश में बहस चल रही है। कुछ लोग यह मानते हैं कि देश की सामाजिक,
राजनीतिक तथा वैचारिक स्थिति पर इसका
अधिक प्रभाव है तो कुछ इसे नहीं मान रहे।
हमारा मानना है कि यह कथित सोशल मीडिया वास्तव में एक ऐसी आभासी दुनियां है
जिसके बारे में अनुमान ही किया जा सकता है।
एक तथ्यात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत करना कठिन काम है।
यह लेखक पिछले आठ वर्ष से लिख रहा है पर
सच्चाई यह है कि इसका नाम अपने मोहल्ले के बाहर भी एक ब्लॉग लेखक के रूप में कोई
नहीं जानता। पहचानना तो दूर की बात है किसी एक व्यक्ति से इसके माध्यम से भौतिक
संपर्क तक नहीं हो पाया। कथित रूप से अनेक मित्र बने पर जैसे जैसे खुलासे हो रहे
हैं उससे साफ साफ लगता है कि अंतर्जाल कंपनियों ने अपनी अपनी माया जिस तरह रची है
उससे ख्वामख्वाह में अपने प्रसिद्ध होने का भ्रम पाल लिया था। यह भ्रम भी उन मित्रों की ही देन थी जो अत्यंत
भावपूर्ण रूप से टिप्पणियां देते थे। हमारा
मानना है कि कोई आठ ऐसे लोग रहे होंगे (जिनके नाम हमारे एक स्थानीय अखबार में छपे
थे जो हमें अब याद नहीं हैं) जो हिन्दी भाषा के विशारद थे और वह पेशेवराना अंदाज
में संगठित बाज़ार को भविष्य के लिये जमीन प्रदान कर रहे थे। उनकी प्रतिभा यकीनन असंदिग्ध रही है। इनमें भी
कम से कम एक आदमी ऐसा है जो हमें हार्दिक भाव से चाहता रहा होगा। वह कई नाम से आता
होगा और यकीनन अपनी टिप्पणी में अपना वास्तविक नाम नहीं लिखता होगा। वह महिला भी
हो सकती है, क्योंकि आभासी
दुनियां में कुछ भी कहना कठिन है।
हमने अंतर्जाल पर केवल अपनी रचनात्मकता स्वयं
को दिखाने का लक्ष्य रखकर प्रारंभ किया पर कथित मित्र अच्छे अदाकर भी थे इसलिये
उन्होंने हमारे सामने अनेक उत्सुकतायें पैदा कीं। अगर हम पत्रकार नहीं रहे होते तो
जल्दी उन पर यकीन कर लेते। हमें यह जल्द
समझ में आ भी गया कि इस तरह की आत्मीयता के पीछे कुछ राज है। इशारों में हमने अपनी
बात कह भी डाली और उसके बाद हमारी यह आभासी दुनियां एकदम समाप्त हो गयी। इससे हमें राहत मिली कि हमें कोई पढ़ता नहीं है
क्योंकि ऐसे में विवादों में पड़ने का भय नहीं रहता। अंतर्जाल पर प्रकाशित पाठों से पता चलता है कि
देश के कुछ अखबारों में प्रकाशित अनेक लेखों में प्रतिष्ठत हिन्दी ब्लॉगरों के
नाम होते हैं पर हमारा नाम नहीं
मिलता। सीधी बात कहें तो हम आज भी वहीं
है जहां आठ वर्ष पहले थे। कथित मित्रों के
पाठ अब भी देखते हैं उसमें अपना नाम तक नहीं होता। लोग यह न सोचें कि हम इससे निराश हैं क्योंकि
हमें पता था कि हमें कुछ पेशेवर लोग केवल हिन्दी में अंतर्जाल पर अधिक से अधिक
हिन्दी लिखने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये हमसे मित्रता का स्वांग कर रहे
हैं। हम स्थानीय अखबार में छपे नामों को
इसलिये भी याद नहीं रख पाये क्योंकि उनमें से कोई भी अपनी वास्तविक छवि के साथ
नहीं था। वह आठ लोग पता नहीं कितने नामों से
पाठ और टिप्पणियां लिखते रहे थे। उस समय ऐसा लगता है कि सैंकड़ों ब्लॉगर होंगे पर
ऐसा था नहीं। वह न केवल अच्छे लेखक थे पर अच्छे अदाकार भी थे। उनके अनेक पाठ ऐसे
थे जो उनकी प्रतिभा का प्रमाण थे। वह
बेहतर ढंग एक ही समय में मित्र और विरोधी की भूमिका निभा लेते थे। कोई कह नहीं सकता कि एक समय में एक व्यक्ति इस
तरह दोहरी भूमिका निभा सकता है। बहरहाल उन्होंने हमसे पीछा छुड़ाया तो हमें भी
तसल्ली हुई। एक बात तय रही कि इन आठों में कोई भी ऐसा नहीं था जो हम जैसा स्वतंत्र
चिंत्तन रखता हो। यह सभी कहीं न कहीं देश
में प्रचलित राजनीतिक, आर्थिक,
सामाजिक, तथा कला क्षेत्रों में बंटे समाज में अपने समूहों के
प्रतिनिधि थे। हम विशुद्ध रूप से भारतीय
अध्यात्मिक विचाराधारा की तरफ उस समय तक मुड़ चुके थे। सच्ची बात यह कि हमने
अंतर्जाल पर लिखते हुए अपने अंदर एक दृढ़ वैचारिक ढांचे का निर्माण किया। इस उपलब्धि ने हमें इतना मजबूत बनाया कि हमें
साफ लगने लगा कि जिस राह पर हम हैं वह किसी हमराही के मिलने की संभावना नगण्य
रहेगी। सत्य स्वीकार करने के साथ ही मनुष्य में दृढ़ता का भाव आता है यह हमारी इस
यात्रा से निकाला गया निष्कर्ष है।
इस अनुभव के कारण हमने यह भी निष्कर्ष निकाला
कि अगर आठ वर्ष से लिखते हुए जो अंतर्जाल हमें एक अंतरंग मित्र या स्थाई पाठक न
दिला सका तो वह किसी के लिये फलीभूत नहीं हो सकता। अलबत्ता यहां काम करने पेशेवर
लोग किसी के सामने किसी भी तरह की आभासी दुनियां खड़ी कर सकते हैं। यह अलग बात है कि उनकी आभासी दुनियां के साथ
कुछ सत्य जुड़ जाता है पर उसका प्रतिशत कितना होगा इसका विश्लेषण करना बाकी
है। इस समय चुनावों पर सोशल मीडिया के जिस
प्रभाव का उल्लेख किया जा रहा है उसका अधिक आंकलन हमें सशंकित करता है। यह पेशेवर
लोग हिन्दी भाषी क्षेत्रों में किसी के लिये प्रचार कर सकते हैं पर उन्हीं
व्यक्तित्वों का जो परंपरागत प्रचार माध्यमों में-टीवी और समाचार पत्र-पहले से ही
स्थापित हैं। इनमें यह शक्ति नहीं है कि अंतर्जाल पर सक्रिय व्यक्ति को इन
माध्यमों में स्थापित कर सकें। यह संगठित बाज़ार और प्रचार समूहों के पिछलग्गू हो
सकते हैं पर कोई स्वतंत्र मार्ग निर्मित नहीं कर सकते। आठ वर्ष लिखते रहने के बाद
हमारा कोई नाम नहीं लेता इससे अफसोस नहीं होता क्योंकि हमें पता है कि हिन्दी भाषा
के स्थापित समूहों ने ही यहां कब्जा किया है और जो हमें कभी पहचानने का प्रयास नहीं
करेंगे। वह परंपरागत समूहों और व्यक्तियों
के अनुयायी होकर यहां आये हैं कि किसी स्वतंत्र हिन्दी लेखन समाज का निर्माण करना
उनका लक्ष्य है। एक पेशेवर को जिस तरह के तौर तरीके आजमाने चाहिये वही वह कर रहे
हैं। वह धन कमायें हमें बुरा नहीं लगता पर
अगर वह समाज में कोई नवीन परिवर्तन का स्वप्न दिखायें तो उनको चुनौती देने का मन
हमारा भी करता है। हमने पहले भी लिखा कि
जिस तरह स्थापित हिन्दी भाषी प्रकाशनों का रवैया रहा है कि वह किसी लेखक को उभारते
नहीं वरन् उभरे हुए किसी हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेंजी लेखक को हिन्दी में अनुवाद
कर प्रकाशित कर अपनी कमाई का लक्ष्य पूरा
करना बेहतर समझते हैं उसी तरह अंतर्जाल पर भी रहने वाला है। एक सामान्य शुद्ध
हिन्दी लेखक के लिये जिस तरह प्रबंध कौशल के अभाव में कहीं नाम और नामा कमाना कठिन
है वैसा ही यहां भी है। अलबत्ता हम जैसे
स्वांत सुखाय लेखकों के लिये यह मजेदार है।
कहीं कुछ देखकर अपनी भड़ास यहां निकालना अपने आप में एक मनोरंजक काम लगता
है।
अपनी बात करते हुए हम इस बात को भूल ही गये कि
समाज पर इस अंतर्जाल के प्रभाव की बात करना है। एक बात हम यहां यह भी बता दें कि
देश के व्यवसायिक टीवी चैनल इससे बहुत डरे हुए होंगे। वजह यह कि टीवी चैनल से ऊबे लोगों के लिये
अंतर्जाल एक नये टॉनिक का काम करता है। यहीं कारण है कि सभी टीवी चैनल इस तरह की
सामग्री देते हैं है जिससे नयी पीढ़ी के लोग उसके साथ बने रहें। यही कारण है कि
अनेक समाचार वह फिल्म की तरह पेश करते हैं।
एक ही समाचार पर सात दिन तक बहसें होती हैं। खासतौर से प्रतिष्ठित लोगों का
कभी खराब समय आता है तो वह इन चैनलों के लिये कमाई का अवसर बन जाता है। जिस दिन यह टीवी चैनल फार्म में होते हैं उस
दिन हमारे ब्लॉग पिटते हैं और जिस दिन अपने ब्लॉग हिट देखते हैं तो पता लगता है कि
टीवी चैनल कमजोर हैं। सीधी बात कहें तो
अभी भी टीवी चैनल और समाचार पत्र ताकतवर बने हुए हैं। उन्होंने अपने प्रयासों से अंतर्जाल के
प्रयोक्ता अपनी तरफ खींच लिये हैं। दूसरी
बात यह भी है कि अंतर्जाल हिन्दी भाषा से नये लेखक देने में नाकाम रहा है जिससे
उसका मकड़जाल भी कमजोर रहा है। अंतर्जाल पर
पेशेवर लोग इस बात को समझ लें कि उनके पास एक भी ऐसा नाम नहीं है कि वह दावा कर
सकें कि उन्होंने यहां किसी हिन्दी भाषी लेखक को उभारा। यह बात अंतर्जाल के
प्रयोक्ताओं को निराश करने वाली है। सबसे
बड़ी बात यह कि हम उनके हिन्दी भाषी क्षेत्रों में उस तरह की पहुंच को मानते ही
नहीं जैसा कि वह दावा करते है। कुछ विवाद सोशल मीडिया को लेकर खड़े हुए है पर हमारा
मानना है कि यह केवल इस प्रचार के लिये हैं कि अंतर्जाल के प्रयोक्ता बने रहें।
जिस तरह फेसबुक (facebook), ट्विटर(twitter) तथा ब्लॉग (blogger and wordpress
blog) से मोहभंग होते लोगों को हम देख
रहे हैं उससे तो यह लगता है कि यह आम उपयोग से बाहर होने वाला ही है। इसलिये किसी
को भी सोशल मीडिया के अधिक शक्तिशाली होने का भ्रम नहीं पालना चाहिये। शेष अगले
भाग में।
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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