धन का शिखर
हमेशा चमकदार
दिखता है
मगर कोई चढ़ नहीं
पाता।
एक रुपये की
चाहत
करोड़ों तक
पहुंचती
चढ़ते जाते फिर
भी लोग शौक से
चाहे वह हमेशा
दूर ही नज़र आता।
कहें दीपक बापू
माया की दौड़ में
शामिल धावकों की
कमी नहीं है,
कुछ औंधे मुंह
गिरे
जो दौड़ते रहे
फिर भी उनको
सफलता जमी नहीं
है,
यह माया का खेल
है
किसी के हाथ आयी
किसी के हाथ से
गयी
जीतकर भी कोई
नहीं
सिर ऊंचा कर
पाया
नाकाम धावक
प्राण भी दांव
पर लगाता है।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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