दर्शक रहने की आदत हो गयी, अपना कत्ल भी
यूं ही देखेंगे।
दीपकबापू पर्दे पर लटका दिमाग, लोग भीड़ में भेड़
ही दिखेंगे।।
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पर्दे पर कत्ल के दृश्य देख, सड़क पर भी दर्शक
हो जाते हैं।
दीपकबापू आंखे सोचती नहीं, लोग मजे लेते खो
जाते हैं।
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शराब करती दिमाग का दही, जिसने पी समझो
कायर हो गया।
‘दीपकबापू’ ग्लास छोड़ कलम पकड़ी, समझो वह शायर हो गया।।
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झूठा करे या सच्चा वादा, हम सभी पचा जाते
हैं।
दीपकबापू किसकी पोल खोले, सभी नज़र बचा
जाते हैं।
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कमान से तीर जैसे शब्द निकलते, वीर हो तभी बात
बजाना।
‘दीपकबापू’ मृत संवेदना के घर, चेतना सभा नहीं सजाना।।
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स्वर्ग की चाहत में इंसान, नरक बना देता यह
जहान।
दीपकबापू बेबस फरिश्ते हैं, खामोशी से बचाते
जान।।
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जिंदगी के महंगे सुंदर पल, गुनाह पर क्यों
खर्चा करें।
‘दीपकबापू’ जुबान देवता है, मसखरी की क्यों चर्चा करें।।
...................
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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