हम खुश है चाहे नहीं बुलाया तुमने अपनी महफिल में।
फिर भी कोई शिकायत नहीं तुमसे हमारे टूटे दिल में।।
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बेपरवाह होकर घड़ियों में वक्त चले, चिराग अंधेरों में जले।
फिक्र में अक्ल का घनी इंसान, उसके पेट में रोटी कैसे पले।।
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जनता का जीवन कागज से चलाते, स्याही से सड़क पर चिराग जलाते।
‘दीपकबापू’ स्वयं रैंग कर चलते हैं, तेज दौड़ने के संदेश चलाते।।
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ख्वाहिशें कर देती है सोच तंग, परिवार में लगी है बड़ी जंग।
‘दीपकबापू’ ज्ञान की करें बड़े बात, पीते रहते माया की भंग।।
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संतों का सिंहासन पंत जैसा, पंतों का प्रवचन संत जैसा।
‘दीपकबापू’ पहचान के संकट में फंसे, हर चेहरा एक जैसा।।
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हम दो खुशी बांटने चले थे हवाओं ने रुख बदल दिया।
उनके घर देखा जब तोहफों ढेर, अपना रुख बदल दिया।।
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नोट-याद नहीं आ रहा एक क्षेत्रीय भाषा में पंत शब्द का अर्थ राजपद से है।
हिन्दी दिवस पर वक्ता खूब बोलेंगे, पुराने राज नये जैसे खोलेंगे।
‘दीपकबापू’ करें रोज अंग्रेजी को सलाम, हिन्दी मंच पर डोलेंगे।।
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कोई बेवफा कहे परवाह नहीं, आगे रिश्ते ढोने से बचे रहेंगे।
वफा के सबूत नहीं ला सकते, मजबूरी का बोझ भी नहीं सहेंगे।।
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नकली दूध पीकर वीर नहीं बने, भूख पर छाये महंगाई के बादल घने।
‘दीपकबापू’ रुपहले पर्दे पर बेचें गरीबी, काले दौलतमंदों के महल बने।।
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अपनी उदासी से स्वयं छिपना भी मुश्किल है।
हमारे अंदर ही बैठा पर कितना पराया दिल है।।
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