Mar 10, 2008

समन्दर गहरा कि मन-हिन्दी शायरी

समन्दर गहरा है कि मन
कोई नहीं जान पाया
जिसने जैसा समझा बताया
दोनों पर इंसान काबू नहीं कर सकता
पर फिर भी इसका उपाय बताया

समन्दर में मीठे पानी की तलाश में
आदमी का मन ललचाया
जहाँ मिलता है मीठा पानी
वहाँ से उसका मन कभी नहीं भर पाया

चारों तरफ रौशनी में बैठा शख्स
अंधेरों में रहने वालों का दर्द बयान कर
लूटता हैं वाह-वाही
पर गली में जाने से उसका मन डरता है
उसके बडे होने के अहसास में
कोई सच उनके सामने कह नहीं पाया
अनजाने खौफ में जीता आदमी का मन
समन्दर की लहरों की तरह उठा और गिरता है
हम उसे नहीं चलाते
हमारी जीवन की नैया का मांझी है मन
भला इस सच को कौन जान पाया

अँधेरे में जिनके घर डूबे हैं
वह फिर भी जिन्दगी से नहीं ऊबे हैं
क्योंकि उम्मीद हैं उनको किसी दिन
रौशनी उनके घर में आयेगी
पर जो पी रहे हैं धरती और आकाश की रौशनी
जीते हैं एक डर में
पता नहीं कब अँधेरा उनके निकट आ जाये
इसके लिए उन्होने षड्यंत्रों को
अपना कवच बनाया
जिन्होंने लांघी मजबूरी की हद
वही जीते हैं जिन्दगी को सहजता से
समन्दर गहरा कि मन
उन्होने ही जान पाया
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4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।बधाई।

Udan Tashtari said...

समन्दर गहरा है कि मन
कोई नहीं जान पाया


--सही है.

रवीन्द्र प्रभात said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , बेहतरीन रचना , बधाईयाँ !

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

अनुभव की विशालता यूं ही दर्शाइये ।