तो बदहाल हो गया
मैंने लिखी कविता
वर्षा ऋतू के प्रतीक्षा में
वर्षा ऋतू के प्रतीक्षा में
तो निहाल हो गया
कविता लिखकर
निकला घर से बाहर
साईकिल पर पसीने में नहाते
बाज़ार के लिए
लौटने के लिए ज्यों ही तैयार हुआ
तेज आंधी और बादल
लड़ते-लड़ते चले आ रहे थे
इस मौसम की पहली बरसात में
रिम-झिम फुहारों से मुझे
नहला रहे थे
सोचा कहीं रूक कर
पानी से अपने बदन को बचाऊँ
फिर याद आया मुझे वह बहता पसीना
जो कविता लिखते समय आ रहा था
सोचा क्यों न उसके हिट होने का
लुत्फ़ बूंदों में नहाकर उठाऊं
कुछ पल अपने को "महाकवि"
होने का अहसास कराऊँ
मेरी कविता को पढने
स्वयं बदल आये थे
पानी साथ भरकर लाए थे
कविताएँ तो कई लिखीं
यह पहली कविता थी
जिसकी बूंदों में बादल भी
लगते नहाये थे
लगते नहाये थे
जो वर्ष ऋतू की पहली बूंदे
मेरे शहर में लाकर
मेरी कविता हिट करने लाए थे
------------
2 comments:
महाकवि जी, अब जब साईकिल लेकर निकल ही पड़े हो तो कविता गाते हुऎ सभी सूखाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा कर डालिये. बहुत पुण्य मिलेगा.
:)
वैसे कविता वाकई हिट है.
वाह… बारिश के ताजे अनुभव को सही रुप में पेश किया है… आज का मेरा अनुभव इससे मेल खा रहा है…!!!
Post a Comment