आज सुबह से टीवी समाचार चैनलों पर दहेज़ पर विवाद की तीन खबरें एक साथ चल रहीं हैं । एक खबर में एक मंगेतर ने दहेज़ के विवाद के चलते २३ साल के एक लडकी की हत्या किये जाने के चर्चा है-इसमे बताया गया है कि लड़के और लडकी का प्यार नौ वर्ष तक चला। दूसरी ख़बर में एक लडकी ने अपने बॉय फ्रेंड पर दहेज़ मांगने का आरोप लगाते हुए उससे शादी करने से इनकार कर दिया। तीसरे प्रकरण में एक लडकी ने दहेज़ लालची दूल्हे की पिटाई कर दीं । जैसा कि होना चाहिए यह सभी प्रकरण पुलिस के पास पहुंचे हैं और वह अपने हिसाब से निपटने का प्रयास कर रही है। ऎसी घटनाएँ लगातार टीवी पर लगातार आ रही हैं । हर जगह एक ही जैसी कहानी होती है , बस स्थान, शहर और पात्रों के नाम बदल जाते हैं। किसी एक घटना पर उसके पात्रों के कृत्यों पर नज़र डालने की बजाय इसमें सम्पूर्ण समाज में विचारों और नैतिकता के अभाव के रुप में देखना होगा।
जो लोग सोचते हैं कि प्रेम विवाह से इस समस्या का हल हो जाएगा उनकी गलतफहमी ऎसी घटनाएं देखकर दूर हो जायेंगी क्योंकि इसमें दो मामलों में प्रेम प्रसंग भी हैं और एक में तो भागकर शादी भी हो चुकी थी । पुराने समय में दहेज़ इस विकृत रुप में नहीं था जिस तरह आज दिख रहा है। समय के साथ हमारा समाज अपने विचार और परम्पराओं को बदल न पाने की वजह से उसमें जो खोख्लापान आया है उससे इस तरह की घटनाएं होना कोई आर्श्चय की बात नहीं है, पर इनमें जो पात्र हैं वह उस वर्ग से संबंधित हैं जो स्वयं को सभ्रांत कहता है-और वह इन परम्पराओं को धरम और जात के गौरव के रुप में देखता है। पहले और अब की जीवन शैली में जो फर्क आया है उसे अगर समझा नहीं जाएगा तो दहेज़ प्रथा से समाज का अंतर्द्वंद और बढ जाएगा जो अंतत: उसके पतन का कारण बनेगा। पहले एक लडकी के लालन-पालन और शिक्षा पर लड़के के मुकाबले कम खर्च होता था और उन्हें माता-पिता की संपत्ति में भी कोई हिस्सा नहीं मिलता था । उस समय यह परंपरा सौहार्द के साथ चली और इसके लिए किसी लडकी के पिता ने उसकी शादी में कभी दुखी होकर खर्च नही किया। उस समय दहेज़ देने वाला भी अपनी श्रध्दा से देता था तो लेने वाला भी झिकझिक नहीं करता था । अब हालत बदल गये हैं । लडकी के लालन-पालन और शिक्षा पर भी लड़के जितना ही खर्च होने लगा है और संपत्ति में भी उनको कानूनन हिस्सा मिलने लगा है। यह अलग बात है कि आज भी कयी ऎसी महिलाऐं हैं जो अपने माता-पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से हिस्सा इसीलिये नहीं मांगती क्योंकि एक तो यह मानती हैं वह दहेज़ के रुप में अपना हिस्सा लेकर निकली हैं और दुसरे भाईयों से अच्छे संबंध का विचार उनके मन में रहता है। कुल मिलाकर समय ने अपने हिसाब से परिवर्तन किये हैं पर एक व्यक्ति के रुप में हमारी मानसिकता वैसी की वैसे है जैसे पहले थी। इसी कारण समाज में जो अंतर्द्वंद है जो इन घटनाओं के रुप में प्रकट हो रहा है। एक बात मजे की बात यह है इसके पीछे भी महिलाएं ही होती हैं पर मैं इसके लिए पुरुषों को ही जिम्मेदार मानता हूँ -या तो वह मूकदर्शक बने रहते हैं या फिर अपनी घर की महिलाओं को अपनी शक्ति दिखाने के लिए स्वयं ही इसमें शामिल हो जाते हैं जबकि जिस तरह का हमारा समाज पुरुष प्रधान अब भी बना हुआ है उसे देखते पुरुषों का ही दायित्व बनता है वह इस तरह की घटनाओं को न होने दे-खासतौर से उस पिता की जिसके पुत्र की शादी हो रही है । समाज के एक और अंतर्द्वंद की चर्चा करना भी जरूरी है कि अगर किसी को लड़का और लडकी दोनों ही हैं तो लडकी के विवाह के समय वह दहेज़ प्रथा को गाली देते हैं । जब लड़के के विवाह के समय आता है तब वह बताते हैं के समाज में लेनदेन के नाम पर क्या चल रहा है और वह उसी तरह ही चाहते हैं । इस तरह एक व्यक्ति और समाज के रुप में हमारी संकीर्ण सोच है उसे भी अब समझना होगा। जब मैं मासूम लड़कियों को इस दहेज़ से पीड़ित और परेशान देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या समाज और व्यक्ति के रुप में मनुष्य जैसी संवेंद्नाये समाप्त हो चुकी हैं ?
एक बात कहना चाहता हूँ कि चाहे लड़का हो या लडकी माता-पिता को हो नहीं सोचना चाहिय कि उसकी शादी करना है बल्कि यह सोचना चाहिए कि उसका घर बसाना है -पहले लोग अपने बच्चे की शादी की नहीं उसके घर बसाने की बात करते थे-और इसीलिये बसा भी लेते थे । आज हम शादी की सोचते हैं घर बसाने की नहीं-इसीलिये शादी होती है पर घर बसाने पसीना आ जाता है। बदलते समय को देखें और अपने लड़के का घर बसाने की सोचते हुए दहेज़ न लें और फिर देखें उन्हें सुख मिलता है कि नहीं . जिस लडकी के पिता का कचूमर निकाल और दिल दुखाकर दहेज़ में ढ़ेर सारा सामान बटोर कर लाओगे उसकी बेटी तुम्हें सुख देगी यह गलतफहमी पालना लड़के के माता-पिता की विचार शून्यता को ही दर्शाती है।
समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
Apr 29, 2007
Apr 24, 2007
जो मैं अपना दर्द सुनाने चला-चिन्तन
- घर से निकलकर मैं चौराहे पर यह सोचकर पहुंचा कि लोगों को अपना दर्द और व्यथाएं सुनाऊंगा और वह बडे प्यार से मुझे सहलायेंगे और मेरे मन का बोझ हल्का हो जाएगा । वहां पहले ही भीड़ जमा थी और सब अपनी करुण कथा सूना रहे थे। मैं कुछ देर सबकी सुनता रहा क्योंकि मैं खामोश था और बाकी सब चीख चिल्ला कर अपनी बात कह रहे थे, कोई किसी की सुन नहीं रहा था। मैं वहां से वापस लोट पडा, यह सोचकर कि यह मेरा दर्द कम क्या करेंगे उसे बड़ा और देंगे।
- मैं अपना दर्द सुनाने दर-दर भटका और घर-घर अटका जिसे देखो मुझे देखकर अपना दर्द सुनाने लगता और मैं खोमोशी से सुनता, ऐसे कयी दरों पर दस्तक दीं और घरों के अन्दर गया पर सब जगह यही हाल था । सब अपना हाल सुनाते और रोनी सूरत बनाते । मैं यह सोचकर वहां से निकल जाता कि यह लोग क्या मेरे मन में प्रफुल्लता का भाव लाएंगे । यह तो मेरी सूरत को भी रोनी बना देंगे।
- आख़िर तय किया किया अपना दर्द स्वंय ही कम करेंगे। प्रात: उठकर पक्षियों को दाना देना शुरू किया। वहां चिड़िया,तोता, कबूतर और गिलहरी को दाना चुगते देख मन में स्वंय ही प्रफुल्लता का भाव उत्पन्न होने लगा। दर्द ऐसे हवा हुआ कि पता ही न चला । मैं सोच रहा था कि क्या दुनियां में मेरे अन्दर की पीडा को हर कर कोई और ऐसे प्रफुल्लता का भाव और कोई उत्पन्न कर सकता था?
- तालाब किनारे जाकर मछलियों को भी भोजन डालने लगा, उन्हें देखकर अकथनीय सुख की अनुभूति हुई । मैं सोच रहा था कि दौलत लेकर भी कोई ऐसा सुख नहीं दे सकता। आवारा कुत्ते को डबलरोटी खिलाई , धन्यवाद में उसने पूँछ हिलायी। उसकी आंखों में निच्छ्ल स्नेह की भाव थे, और मुझे अपनी पीडा कम होतीं दिखाईं दीं।
- मैंने अपने घर में रखे गमलों को पानी देना शुरू किया और जब उन्हें हरियाली में नहाते देखा तो मेरे अन्दर जो भाव पैदा हुए उनको कोई इन्सान पैदा नहीं का सका। मुझे लगने लगा कि जैसे वह कह रहे हौं कि -"यार, चिंता क्यों करते हो हम हैं न! मेरे मुख पर मुस्कराहट के भाव पैदा होते। मैं उनका एक तरह से मुस्कराकर धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ।
- अब मैं किसी से कोई सवाल नहीं करता हूँ, क्योंकि मुझे लगता है दर्द बांटने के विषय में आदमी का साथी नहीं प्रतिद्वंदी है, हर कोई अपना दर्द सुनाना चाहता है। सुनना किसी की कोई नहीं चाहता । इस विषय पर हम दोस्त हो सकते है तो केवल इतने ही कि हम दर्द सुनते दिखते हैं पर वास्तविकता में अपने दिमाग में उस समय अपना दर्द सुनाने के लिए शब्द ढूँढ रहे होते हैं। हम दोस्त होने का दावा कर सकते हैं पर यह केवल स्वार्थ के लिए , किसी का दर्द दूर करना तो रहा अलग विषय हम उसे सुनते भी नहीं है।
- इसीलिये मैं सोचता हूँ कि अपना दर्द दूर करने के लिए एक ही उपाय है बेजुबानों की आवाज सुनो, और प्रक्क्रुती के निकट जाओ, ऐसे काम करो जिससे तुम्हारा कोई सवार्थ सिध्द न होता हो तभी अपना दर्द कम कर पाओगे .
Apr 23, 2007
अनचाहे दृश्य देखने की ललक-कविता में चिन्तन
सामने कोई द्रश्य जब आता है
तब उसे तुम कितना देखा पाते हो
कितना समझ पाते हो
कभी शायद तुमने सोचा भी न होगा
क्योंकि अपने मन में पाले हो
कुछ ऐसे द्दश्यों को देखने की इच्छा
जिसमे तुम्हारे अपने ही लोग बसते हैं
तुम अनजाने, अनचाहे और अनगढ़ द्दश्यों को
अनदेखा कर निकल जाते हो
उनका मजा लेने से अनजान हो
अगर निकल पाते अपने मन से
अगर निकल पाते अपने मन से
तो देख पाते इस दुनियां के
उस व्यापक विस्तार को
उस व्यापक विस्तार को
अपने जीवन के उद्देश्य को
भ्रम से निकल कर पाते ज्ञान को
जीवन इतना छोटा नहीं जितना
हम समझे हैं
अपने ही जंजाल में उलझे हैं
जीना जिसे कहते हैं
उनसे तुम अनजान हो
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अपनी छत पर दाना चुगते पक्षी देख
मेरे मन को अह्लाद होता है
चिड़िया, तोते, कबूतर और गिलहरी
एक साथ दाना चुगते
और मैं उन्हें एकटक देखता
सुबह दरवाजे पर इन्तजार करता कुता
रोटी को जब चबाता है
मेरे मन में आनन्द आता है
कोई संवाद नहीं
कोई शिक़ायत नहीं
फिर जब दिनभर अपने
स्वार्थों की पूर्ती के लिए
जंग करता हूँ
तो लगता है मेरे लिए देखने लायक
ऐसे ही द्रश्य हैं
जिनसे कोई सरोकार नहीं है
पर देखने में अच्छे लगते हैं
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Apr 22, 2007
सौन्दर्य का बोध नज़रों से नहीं दिल से होता है
क्रीम और पाउडर से पुते चेहरे
सौंदर्य का बोध कराते
थोडा पसीना में ही नहाते
चेहरे की असलियत देखते ही
सौन्दर्य पारखी सहम जाते
चेहरे का ही सौन्दर्य अगर
वास्तविक सौन्दर्य होता तो
शिशु जब अपनी जननी को
देखकर गोदी में उठाने के लिए
अपने दोनों हाथ लहराता है
तब वह उसके रंग रुप की ओर नहीं
उसकी ममता में
सौन्दर्य का बोध कराता है
जब भाई अपनी बहिन की ओर
जब भाई अपनी बहिन की ओर
प्यार से निहारता है
तब उसके चेहरे में नहीं
उसके प्यार में सौंदर्य की
अनुभूति कराता है
जो ढूंढते है जिस्म में सौंदर्य
जो ढूंढते है जिस्म में सौंदर्य
उन पर तरस आता है
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सौंदर्य देखने की नहीं
एक अनुभूति है
एक अनुभूति है
अगर अनुभूति नहीं कर सकते
तो देख नहीं सकोगे
और जिसे सुन्दर समझोगे
वह तुम्हारा भ्रम होगा
जब सच सामने आयेगा
तुम्हें अपने ठगे जाने का अहसास होगा
नजरों का प्यार होना
दिल मिलने का सबूत नहीं होता
अगर सौदर्य का बोध करना है तो
अपनी नीयत को सुन्दर करो
चारो ओर तुम्हें सौदर्य का
अहसास होगा
माया का जिनपर है वरदहस्त, दर्शन पर उनका पहला हक
अगर कोइ दौलत,शौहरत और सुपर हिट बेटे और बहु वाला कोई शख्स किसी मंदिर के दर्शन करने जाता है और आम श्रध्दालू के लिए दर्शन बंद कर वहां के प्रबंधक उस महान शख्सियत को पहले दर्शन का अवसर देते है तो हमारे देश का मिडिया बहुत शोर मचाता है । किसी एक घटना का यहां उल्लेख करना बेकार -क्योंकि पिछले छह महीनों में ऐसा एक अभिनेता और दो दो मुख्यमंत्रियों की घटना तो चर्चा का विषय ज्यादा बनीं पर कुछ को थोडा ही कवरेज़ मिला। जब में अपना व्यंग्य या चिन्तन लिखता हूँ तो एक घटना से प्रभावित नहीं होता कयी घटनाएं घट चुकीं होतीं हैं तो कुछ वैसी ही घटने वाली होती हैं।
मामला है जब कोई वी.आयी.पी.जब किसी मंदिर में दर्शन करने जाता है तो वहां आम आदमी का प्रवेश निशिध्द हो जाता। इस पर मीडिया तो नाराज होता है कुछ बुध्दिजीवी लोगों को भी भारी आपत्ति होती है मैं उनसे सहमत नहीं होता। वजह ! हमारे आध्यात्म में साकार और निराकार दोनों रुप में इश्वर की उपासना की जाती है। तुलसीदास, कबीरदास, रहीम, सूरदास, और मीरा जैसे संत-कवियों ने पद्य रचनाओं का न केवल हिंदी साहित्य में वरन हमारे अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सगुण और निर्गुण दोनों तरह की भक्ती का संदेश उनमें अंतर्निहित है। हमारे देश में गीता के संदेश के रुप में एक ऐसा ज्ञान है जिसको कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। जो हमारा इश्वर है वह हमारे मन में है, उससे बाहर ढूँढने के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। फिर भी मैं मंदिर जाता हूँ अपने इष्ट की बाह्य अनुभूति करना भी अच्छा लगता है। मतलब मंदिर जाने से अपने मन में एक स्फूर्ति पैदा होती है। जिस दिन मंदिर नहीं जाता उस दिन अटपटा लगता है। मतलब अपनी भक्ती का लोजिक मैं समझा नहीं सकता। एक बार मैं एक मंदिर गया, उस समय मंदिर में ज्यादा भीड़ नहीं थी , मैं मंदिर के अंडर दाखिल हुआ तो एक वी.आयी.पी.भी वहां दाखिल हुए उनके साथ सुरक्षा गार्ड और अन्य लोग भी थे । मेरे देखते देखते सब लोग भगवान् की प्रतिमा के पास पहुंच गये। रोका तो किसी को नहीं गया पर उनकी भीड़ इतनी थी कि वहां अन्दर कोई खङा न रह सके । मैं एक तरफ खड़ा हो गया । अपने आप पर स्वयं पर ही रोक लगादी। जब वह चले गये तब मैंने वहां ध्यान लगाया । एक अन्य सज्जन भी मेरे साथ वहां मौजूद थे, जब मैं ध्यान लगाकर बाहर निकल रहा था तो वह मुझसे बोले ,"अच्छा ही हुआ जो आप और मैंने बाद में दर्शन और ध्यान किया। पहला दर्शन का हक इन्हीं बडे लोगों को ही है आख़िर इन पर भगवान् ने ख़ूब माया बरसाई है।"
मैं हंस पडा तो फिर बोली-"बताईये लोग मंदिर में आकर भगवन से क्या माँगते हैं। मकान, दुकान, औलाद और तमाम के तरह के सुख ही न! जब इन लोगों को इतने सारे सुख मिल ही गये हैं तो इसका मतलब है कि भगवन इन पर पर मेहरबान हैं। तो बताईये इनका पहला हक हुआ कि नहीं।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मैं निर्लिप्त भाव से वहां खङा था, मेरे मन में एक बार भी खिसियात का भाव नही आया था। जब उस अनजान व्यक्ति ने अपनी टिप्पणी दी तब भी मैं उसे अनसुना कर गया पर कुछ दिनों से जब ऎसी घटनाओं के बारे में पढ़ और सुन रहा हूँ तो मुझे यह घटना याद आती है। एक बात बात दूं कि न यह मेरे लिए गंभीर चिन्तन का विषय है न व्यंग्य का। हाँ, इतना जरूर कहता हूँ कि अगर तुम भगवान से कुछ माँगते हो तो यह भी मान लो कि जिनके पास दौलत, शोहरत पद और तमाम तरह के रुप में माया मौजूद है तो उसे भगवान् का प्रिय जीव मानने में संकोच क्यों ? और अगर निष्काम भाव से मत्था टेकना या ध्यान लगाने जाते हो तो फिर उनकी परवाह वैसे ही नहीं करोगे -किसी के कहने की जरूरत ही नहीं है, योगी और ध्यानी जानते है कि इश्वर की दरबार में सब समान है। यह तो माया का खेल है जो आदमी को वी.आयी.पी.का दर्जा दिलाती और छीनती है। खेलती है माया और आदमी सोचता है में मैं खेल रहा हूँ वह रहती है तो आदमी के मन में उसे बनाए रखने का भय भगवन के दरबार में ले जाता है और चली जाती है तो उसे मांगने वहन जानता है। सच्च भक्त कभी इन चीजों कि परवाह नहीं करते। ।
मामला है जब कोई वी.आयी.पी.जब किसी मंदिर में दर्शन करने जाता है तो वहां आम आदमी का प्रवेश निशिध्द हो जाता। इस पर मीडिया तो नाराज होता है कुछ बुध्दिजीवी लोगों को भी भारी आपत्ति होती है मैं उनसे सहमत नहीं होता। वजह ! हमारे आध्यात्म में साकार और निराकार दोनों रुप में इश्वर की उपासना की जाती है। तुलसीदास, कबीरदास, रहीम, सूरदास, और मीरा जैसे संत-कवियों ने पद्य रचनाओं का न केवल हिंदी साहित्य में वरन हमारे अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सगुण और निर्गुण दोनों तरह की भक्ती का संदेश उनमें अंतर्निहित है। हमारे देश में गीता के संदेश के रुप में एक ऐसा ज्ञान है जिसको कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। जो हमारा इश्वर है वह हमारे मन में है, उससे बाहर ढूँढने के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। फिर भी मैं मंदिर जाता हूँ अपने इष्ट की बाह्य अनुभूति करना भी अच्छा लगता है। मतलब मंदिर जाने से अपने मन में एक स्फूर्ति पैदा होती है। जिस दिन मंदिर नहीं जाता उस दिन अटपटा लगता है। मतलब अपनी भक्ती का लोजिक मैं समझा नहीं सकता। एक बार मैं एक मंदिर गया, उस समय मंदिर में ज्यादा भीड़ नहीं थी , मैं मंदिर के अंडर दाखिल हुआ तो एक वी.आयी.पी.भी वहां दाखिल हुए उनके साथ सुरक्षा गार्ड और अन्य लोग भी थे । मेरे देखते देखते सब लोग भगवान् की प्रतिमा के पास पहुंच गये। रोका तो किसी को नहीं गया पर उनकी भीड़ इतनी थी कि वहां अन्दर कोई खङा न रह सके । मैं एक तरफ खड़ा हो गया । अपने आप पर स्वयं पर ही रोक लगादी। जब वह चले गये तब मैंने वहां ध्यान लगाया । एक अन्य सज्जन भी मेरे साथ वहां मौजूद थे, जब मैं ध्यान लगाकर बाहर निकल रहा था तो वह मुझसे बोले ,"अच्छा ही हुआ जो आप और मैंने बाद में दर्शन और ध्यान किया। पहला दर्शन का हक इन्हीं बडे लोगों को ही है आख़िर इन पर भगवान् ने ख़ूब माया बरसाई है।"
मैं हंस पडा तो फिर बोली-"बताईये लोग मंदिर में आकर भगवन से क्या माँगते हैं। मकान, दुकान, औलाद और तमाम के तरह के सुख ही न! जब इन लोगों को इतने सारे सुख मिल ही गये हैं तो इसका मतलब है कि भगवन इन पर पर मेहरबान हैं। तो बताईये इनका पहला हक हुआ कि नहीं।
इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मैं निर्लिप्त भाव से वहां खङा था, मेरे मन में एक बार भी खिसियात का भाव नही आया था। जब उस अनजान व्यक्ति ने अपनी टिप्पणी दी तब भी मैं उसे अनसुना कर गया पर कुछ दिनों से जब ऎसी घटनाओं के बारे में पढ़ और सुन रहा हूँ तो मुझे यह घटना याद आती है। एक बात बात दूं कि न यह मेरे लिए गंभीर चिन्तन का विषय है न व्यंग्य का। हाँ, इतना जरूर कहता हूँ कि अगर तुम भगवान से कुछ माँगते हो तो यह भी मान लो कि जिनके पास दौलत, शोहरत पद और तमाम तरह के रुप में माया मौजूद है तो उसे भगवान् का प्रिय जीव मानने में संकोच क्यों ? और अगर निष्काम भाव से मत्था टेकना या ध्यान लगाने जाते हो तो फिर उनकी परवाह वैसे ही नहीं करोगे -किसी के कहने की जरूरत ही नहीं है, योगी और ध्यानी जानते है कि इश्वर की दरबार में सब समान है। यह तो माया का खेल है जो आदमी को वी.आयी.पी.का दर्जा दिलाती और छीनती है। खेलती है माया और आदमी सोचता है में मैं खेल रहा हूँ वह रहती है तो आदमी के मन में उसे बनाए रखने का भय भगवन के दरबार में ले जाता है और चली जाती है तो उसे मांगने वहन जानता है। सच्च भक्त कभी इन चीजों कि परवाह नहीं करते। ।
Apr 21, 2007
मैं बड़ा आदमी नहीं बन सकता
छोटी-छोटी हरकतें करते हुए
बनते हीं बडे और ऊंचे लोग
फिर भी पुरानी आदतें ऐसे नहीं जातीं
भेड़ की खाल ओढ़ने से सियार
भेड़ नहीं हो जाती
छोटे ही बनाते हीं बडे लोगों को
उनकी थूक चाटते भी शर्म नहीं आती
फिर बडे लोगों की छोटे अपराधों पर
क्यों ज़माना रोता है
कभी अक्ल लगाई है
बोने चरित्र में भला कभी
बड़प्पन होता है
----------------------------
कभी होती थी बड़ा आदमी बनने की
चाहत मेरे मन में
अब सोचते हुए भी
लगता है भय
क्योंकि मैं कभी कबूतरबाजी
कर नहीं सकता
मैं मुफ़्त में ही करता हूँ
सस्ते सवाल जमाने भर से
महंगे सवालों से अपनी झोली
कभी नही भर सकता
माफ़ करना मेरे दोस्तो
अपने लिए फायदों के मौक़े
मुझे ढूँढना नहीं आते
और तुम्हारे लिए मैं
बड़ा आदमी नहीं बन सकता
------------------
जान-पहचान का नाम दोस्ती नही होता
बुरे लोग दोस्त किसी के नहीं होते
पर भले भी नहीं होते
दोस्त सिर्फ दोस्त जैसे होते हैं
पर भले भी नहीं होते
दोस्त सिर्फ दोस्त जैसे होते हैं
जो सत्य सामने रखे
झूठी तारीफों के पुल न बांधे
भलाई करे पर उसे सुनाये नहीं
हमारे लिए जो फिक्र दिल में है
उसे दुनियां को सुनाये नहीं
भले या बुरे लोगों से क्या काम
जब अपने साथ दोस्त होते हैं
झूठी तारीफों के पुल न बांधे
भलाई करे पर उसे सुनाये नहीं
हमारे लिए जो फिक्र दिल में है
उसे दुनियां को सुनाये नहीं
भले या बुरे लोगों से क्या काम
जब अपने साथ दोस्त होते हैं
-------------------------------
सौ नादाँ दोस्तो से
एक दाना दुश्मन भला
इसीलिये होता है
वह तो होता है सामने
जिस पर रहती है नज़र
पर दोस्त लिए खंजर
पीछे खडे घौंपने के
इन्तजार में होता है
सौ नादाँ दोस्तो से
एक दाना दुश्मन भला
इसीलिये होता है
वह तो होता है सामने
जिस पर रहती है नज़र
पर दोस्त लिए खंजर
पीछे खडे घौंपने के
इन्तजार में होता है
पर अब कोई किसी का दुश्मन
नहीं बनता
सब हो गये सयाने
नहीं बनता
सब हो गये सयाने
जिससे दुश्मनी निकालनी हो
उसके दोस्त बन जाते हैं
हर आदमी हैरान और परेशान है
अब कोई दुश्मन से जंग की
बात कभी नहीं करता
सभी धोखे की कहानी सुनाते हैं
उसके दोस्त बन जाते हैं
हर आदमी हैरान और परेशान है
अब कोई दुश्मन से जंग की
बात कभी नहीं करता
सभी धोखे की कहानी सुनाते हैं
दोस्ती से मिले दर्द
पर आंसू बहाते हैं
-----------------------------
पल पल रंग बदलती इस दुनियां में
दोस्तो के चेहरे बदल जाते हैं
पर आंसू बहाते हैं
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पल पल रंग बदलती इस दुनियां में
दोस्तो के चेहरे बदल जाते हैं
नाम की दोस्ती होती
काम बस होता है
बेमतलब की बातें करना
फुर्सत का समय काटना
दोस्ती की पहचान बन गया है
काम बस होता है
बेमतलब की बातें करना
फुर्सत का समय काटना
दोस्ती की पहचान बन गया है
प्रतिदिन मिलना होता है
पर एक पल के भी संकट से उबारने का
भरोसा नहीं होता
जान पहचान को दोस्ती कहने का
आजकल फैशन हो गया है
पर एक पल के भी संकट से उबारने का
भरोसा नहीं होता
जान पहचान को दोस्ती कहने का
आजकल फैशन हो गया है
बडे लोग ही करते हैं छोटी हरकतें
इस देश कि सबसे बड़ी समस्या क्या है? भ्रष्टाचार, बेकारी भुखमरी, पेयजल का संकट , बिजली की कमी या खाद्धान्न का अभाव । जीं नहीं यह समस्या नहीं हैं बल्कि हमारी अज्ञानता, संकीर्ण विचारों, अदूरदर्शिता और लापरवाही से उपजी उस समस्या का परिणाम है जिसने बोने चरित्र के लोगों को ऊंचे पदों पर पहुंचा दिया है और भले काम को संपन्न करने का ठेका निम्न चरित्र के लोगों को मिलने लगा है। इस देश की समस्या है सज्जनों की निष्क्रिय सज्जनता और बुद्धिजीवियों का यथास्थ्तिवादी रवैया है। सज्जन आदमी किसी भी घटना पर यह सोचकर चुप हो जाता है कि मेरे साथ कोई वारदात थोड़े ही हुयी है, और बुध्दिजीवी किसी घटना पर जो बहस करते हैं उसमें केवल सतही विचार व्यक्त करते हैं और आख़िर उनके वार्तालाप पर कोई निष्कर्ष नहीं निकलता।
अब तो यह हालत हो गयी है कि हर प्रकार के छोटे और बडे अपराध में तथाकथित बडे लोगों का हाथ निकलता है। मैं किसी घटना का जिक्र इसलिये नहीं करता क्योंकि उससे चिन्तन कि धारा संकीर्ण हो जाता है और वह एक घटना में सीमित होकर रह जाता है । मानव तस्करी, अनैतिक संबंध और अपराधियों से नजदीकी रिश्ते जैसे आरोपों से सभी तथाकथित बडे लोगों पर ही लगे हैं और आजकल लड़कियों की मोहब्बतों की कथाओं में जुटा मीडिया इन पर कभी खुलकर बहस नहीं करता । आख़िर विदेशों में बैठे अपराधी क्या केवल शासकीय कर्मचारियों और अधिकारीयों के दम पर ही सारा कारोबार चला रहे है? मीडिया में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह किसी का नाम ले सके, घर से भागी लड़कियों को अपने माता-पिता के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते दिखाने में उसे मजा आ रहा है । जिनके घर की लडकियां भाग जाती हैं उनके माता-पिता की क्या हालत होती है इसका ख़्याल उसे नहीं रहता । सज्जन लोग अपनी इज्जत के भय से दुबक जाता है, और मिडिया उसे इश्क का दुश्मन और जाने कौनसे शब्दों से नवाज्ता है। क्रिकेट में भारत की हार की समीक्षा करते समय कयी ऐसे पहलू मीडिया ने छुए तक नहीं जिनपर जनता को संदेह था। मैं उसे भी दोष नहीं देता क्योंकि उसमें भी वही लोग काम जिन्होंने मैकाले द्वारा रचित शिक्षा प्रणाली से अपना जीवन शुरू किया है और क़सम खा रखी है कि क्लर्क की तरह ही काम करेंगे ।
आजादी के बाद नारों की जो नयी संस्क्र्ती इस देश में बनना शुरू हुई तो उसने धीरे धीरे गंभीर चिंतन की प्रवृति को समाप्त ही कर दिया। जो लोग शिक्षित हुए उन्हें क्लर्क बनने की पंक्ति में लगा दिया और जो महत्वाकांक्षी थे उनके लिए बडे प्रशासकीय पदों का सृजन कर उन्हें सुशोभित किया गया। तब तक इस देश में परिवार वाद का भाव नहीं पनपा था और इसीलिये बडे लोगों ने अपना बड़प्पन बनाए रखने के लिए जनता के भलाई के लिया कम किया पर मैकाले ने जो सपना इस देश में जो क्लर्क पैदा करने का सपना देखा था उसे इस देश के शिक्षाविदों ने जारी रखा। जब बौध्दिक निष्क्रियता की प्रवृति स्थापित हो गयी तो शुरू हो गया परिवारवाद और भायी-भतीजावाद का दौर - और फिर उनकी रक्षा के लिए हर संभव प्रयास किये जाने लगे। बोने चरित्र के लोगों ने इसका लाभ उठाया और अब जो चित्र हमारे सामने है वह यह है कि भला आदमी सब तरफ से आतंक के साए में जीं रहा है और बोने चरित्र और विचार वाले लोग ऊंचे पदों पर पहुंच गये इसका एक ही उपाय है सज्जन अपनी सज्जनता को भय के साथ नहीं वरन हिम्मत के साथ जिए और बोने चरित्र वाले लोगों का सम्मान करना बंदकर दे ।
अब तो यह हालत हो गयी है कि हर प्रकार के छोटे और बडे अपराध में तथाकथित बडे लोगों का हाथ निकलता है। मैं किसी घटना का जिक्र इसलिये नहीं करता क्योंकि उससे चिन्तन कि धारा संकीर्ण हो जाता है और वह एक घटना में सीमित होकर रह जाता है । मानव तस्करी, अनैतिक संबंध और अपराधियों से नजदीकी रिश्ते जैसे आरोपों से सभी तथाकथित बडे लोगों पर ही लगे हैं और आजकल लड़कियों की मोहब्बतों की कथाओं में जुटा मीडिया इन पर कभी खुलकर बहस नहीं करता । आख़िर विदेशों में बैठे अपराधी क्या केवल शासकीय कर्मचारियों और अधिकारीयों के दम पर ही सारा कारोबार चला रहे है? मीडिया में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह किसी का नाम ले सके, घर से भागी लड़कियों को अपने माता-पिता के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते दिखाने में उसे मजा आ रहा है । जिनके घर की लडकियां भाग जाती हैं उनके माता-पिता की क्या हालत होती है इसका ख़्याल उसे नहीं रहता । सज्जन लोग अपनी इज्जत के भय से दुबक जाता है, और मिडिया उसे इश्क का दुश्मन और जाने कौनसे शब्दों से नवाज्ता है। क्रिकेट में भारत की हार की समीक्षा करते समय कयी ऐसे पहलू मीडिया ने छुए तक नहीं जिनपर जनता को संदेह था। मैं उसे भी दोष नहीं देता क्योंकि उसमें भी वही लोग काम जिन्होंने मैकाले द्वारा रचित शिक्षा प्रणाली से अपना जीवन शुरू किया है और क़सम खा रखी है कि क्लर्क की तरह ही काम करेंगे ।
आजादी के बाद नारों की जो नयी संस्क्र्ती इस देश में बनना शुरू हुई तो उसने धीरे धीरे गंभीर चिंतन की प्रवृति को समाप्त ही कर दिया। जो लोग शिक्षित हुए उन्हें क्लर्क बनने की पंक्ति में लगा दिया और जो महत्वाकांक्षी थे उनके लिए बडे प्रशासकीय पदों का सृजन कर उन्हें सुशोभित किया गया। तब तक इस देश में परिवार वाद का भाव नहीं पनपा था और इसीलिये बडे लोगों ने अपना बड़प्पन बनाए रखने के लिए जनता के भलाई के लिया कम किया पर मैकाले ने जो सपना इस देश में जो क्लर्क पैदा करने का सपना देखा था उसे इस देश के शिक्षाविदों ने जारी रखा। जब बौध्दिक निष्क्रियता की प्रवृति स्थापित हो गयी तो शुरू हो गया परिवारवाद और भायी-भतीजावाद का दौर - और फिर उनकी रक्षा के लिए हर संभव प्रयास किये जाने लगे। बोने चरित्र के लोगों ने इसका लाभ उठाया और अब जो चित्र हमारे सामने है वह यह है कि भला आदमी सब तरफ से आतंक के साए में जीं रहा है और बोने चरित्र और विचार वाले लोग ऊंचे पदों पर पहुंच गये इसका एक ही उपाय है सज्जन अपनी सज्जनता को भय के साथ नहीं वरन हिम्मत के साथ जिए और बोने चरित्र वाले लोगों का सम्मान करना बंदकर दे ।
Apr 17, 2007
दर्द का यहाँ होता है व्यापार
राजनीति वह व्यापार है
जिसमें गरीबी, बेकारी भ्रष्टाचार
जिसमें गरीबी, बेकारी भ्रष्टाचार
और भुखमरी का दर्द बेचा जाता
दर्द के इलाज का वादा
दर्द के इलाज का वादा
बिना दवा से किया जाता है
इलाज के नाम पर किये जाते
इलाज के नाम पर किये जाते
तरह तरह के समीकरण
मरीज हर बार फिर भी
इलाज कराने चला आता है
इलाज कराने चला आता है
किस दर्द से कितना वोट जुडेंगे
इलाज के नाम पर कौनसे वर्ग जुटेंगे
जिनके पास दवा नहीं वही इलाज का
daavaa गला फाड़ कर करते है
जो करते हैं इलाज सच में
जो करते हैं इलाज सच में
राजनीती का क्षेत्र
उन्हें रास नहीं आता है
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मैं अपनी कविता दर्द
बेचने के लिए नहीं लिखता
जो पीते हैं गम
उन पर अपने शब्द नही रचता
दर्द के कविताओं में भी
अपना दर्द नहीं भरता
हर निराशा पर आशा का चिराग
हर घात पर विश्वास की रोशनी
हर घात पर विश्वास की रोशनी
नाकामी पर नये संकल्प की रचना
करना मैंने सीखा है
दर्द से कविता पैदा होती है
पर मैंने दर्दों में घुटना नहीं
उनसे लड़ना सीखा है
बेदर्द कविता से ही दर्द को हराते
मेरा जीवन बीता है
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अपने दर्द और गम ज़माने को
दिखाने से राहत नहीं मिलती
सब हँसते है एक दुसरे के
दर्द और को देख और सुनकर
इस दुनिया में किसी दर्द की
दवा नहीं मिलती
हंसने के लिए झूठे किस्से गडे जाते हैं
भला उनसे कहीं सच्ची हंसी कहीं मिलती है
अपने दर्द और ग़मों पर खुद हंसो
अकेले में सिंह की तरह दहाड़
मन को हल्का करना सीख लो
अपने दर्द की दवा मन में हे ही बनती
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Apr 16, 2007
नसीब और ख़ुशी
कुछ पलों की ख़ुशी की खातिर
झूमते और नाचते है लोग
फिर थक हारकर बैठ जाते हैं
फिर भी लगता है उन्हें कि
फिर थक हारकर बैठ जाते हैं
फिर भी लगता है उन्हें कि
वह खुश नही हो सके
फिर ख़ुशी कि तलाश में
निकल पड़ते हैं लोग
चूहे-बिल्ली जैसा खेल है
चूहे-बिल्ली जैसा खेल है
इस इंसानी ज़िन्दगी का
आगे चलती अद्रश्य ख़ुशी
पीछे चलता हैं इन्सान
ख़ुशी की कोई पहचान नहीं है
आंखों में कोई तस्वीर नहीं है
मिल भी जाये तो उसे
कैसे पहचाने लोग
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तुम तय करो पहले चाहते क्या हो
फिर सोचो कैसे चाहते हो
उजालों में ही जीना चाहते हो
तो पहले चिराग जलाना सीख लो
बहारों में जीना है तो
फूल खिलाना सीख लो
उड़ना है हवा में तो
जमीन पर पाँव रखना सीख लो
अगर तैरना है तो पहले
पानी की धार देखना सीख लो
यह ज़िन्दगी तुम्हारी कोई खेल नहीं है
इससे खिलवाड़ मत करो
इसे मजे से तभी जीं पाओगे
जब दिल और दिमाग पर
एक साथ काबू रखो
तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होता
अपने नसीब अपने हाथ से
अपनी स्याही और अपने कागज़ पर
लिखना सीख लो
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Apr 12, 2007
पाकिस्तान का नया पैंतरा:पानी के लिए जंग
पाकिस्तान के विदेश मंत्री कसूरी ने कहा है कि पानी को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच युध्द हो सकता है। इसका सीधा मतलब यह है भारत चाहे कितनी भी कोशिश कर ले पकिस्तान के पास युध्द के बहानों की कमी नहीं रहेगी। उसे किसी मामले के सुलझने से मतलब नही है उसे बस हमेशा इस इलाक़े में तनाव बनाए रखना है। ऐसा लगता है कश्मीर मामले पर अपने देश में घटते जनसमर्थन से पाकिस्तान के रणनीतिकारों की नीद हराम हो गयी हैं और भारत की छबि वहां न बने और पाकिस्तान की जनता कहीं भारत के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण न अपनाने लगे उनसे यह बयां दिलवाया गया है। पाकिस्तान का जन्म ही भारत से नफरत के आधार पर हुआ है- उसका अमेरिका ने लालन-पोषण भी केवल इसलिये किया ताकि भारत और चीन पर नियंत्रण रख सके। यह अलग बात है पाकिस्तान के नेताओं ने अमेरिका से धन लेकर अपने घर भरे और वहां की जनता को भारत विरोध और इस्लाम के नाम पर भूखा रखते रहे , और आज वहां दोनों मुद्दों की हवा निकल रही है तो वहां के शासक पाकिस्तान का असितत्व बचाने के लिए ऐसे बयां दे रहे हैं।
पकिस्तान जाने वाली नदियाँ भारत से गुजरती हैं और भारत ने अपने विकास के साथ अनेक नदियों पर बाँध बना लिए हैं। साथ ही यहां किसी से क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया है, पूरा विकास न हुआ हो पर किसी प्रदेश विशेष के प्रति केंद्र सरकार ने न तो लगाव दिखाया है और न ही उपेक्षा की है। यही कारन है कि इस देश में अलगाववादी आंदोलनों को कभी भारी जनसमर्थन नहीं मिलता । पाकिस्तान में देश का मतलब है पंजाब और पंजाब में भी लाहौर और रावलपिंडी तक ही उनका सोच है। पंजाब के बडे शहरो के लिए पेयजल और खेती के लिए पानी के इंतजाम के लिए सिंध और और बलूचिस्तान जाने वाले नदियों पर बाँध बना दिए हैं जिससे दोनों प्रदेशों में वर्ष भर अकाल रहता है। हिंदूओं के लिए पवित्र माने जाने वाली सिंध नदी में पानी का बहाव अब बहुत कम हो गया है, इसके अलावा सिंधी और ब्लूचियों के मन में पजाब के प्रति अधिक लगाव दिखाने के कारण बहुत रोष है। भारत के आतंकवादियों को पाकिस्तान ने इस्लामाबाद या लाहौर में न रखकर सिंध और बलूचिस्तान में शरण दीं जो आज वहां के लिए सिरदर्द बन गये हैं। दोनों प्रदेशों की जनता अब यह समझ गयी है कि पंजाब के हितों की खातिर उनको बलि का बकरा बनाया गया है-क्योंकि जब पाकिस्तान यह कहता है कि उसके यहां भी आतंकवाद है तो वह इन्ही प्रदेशों की तरफ इशारा करता है। इससे पंजाब को कोई परेशानी नहीं है। सारा संकट सिंध और बलूचिस्तान की जनता पर है। उसका अंदरूनी आतंकवाद भी इस तरह प्रायोजित किया गया है कि पंजाब में शांति रहे और वह विश्व को दिखा सके कि वह एक आतंक प्रभावित देश है।
पानी के मामले में कसूरी का यह बयान पंजाब की जनता को बहलाने के लिए दिया गया है जो इन गर्मियों के मौसम मैं पेयजल संकट का सामना कर रही है । अगर कहीं पंजाब की जनता नाखुश हो गयी तो पंजाब के शासक न घर के रहेंगे न घाटा के । जहां तक भारत का प्रश्न है तो इस समय भारत कि नदियों में ही पाने सूख जाता है तो उसके द्वारा पानी को रोकना का प्रश्न ही नही है। फिर भी भारत को सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान की रणनीति खुराफाती दिमाग वाले लोग चलाते हैं जिनका असितत्व ही भारत विरोध पर निर्भर है।
पकिस्तान जाने वाली नदियाँ भारत से गुजरती हैं और भारत ने अपने विकास के साथ अनेक नदियों पर बाँध बना लिए हैं। साथ ही यहां किसी से क्षेत्र के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया है, पूरा विकास न हुआ हो पर किसी प्रदेश विशेष के प्रति केंद्र सरकार ने न तो लगाव दिखाया है और न ही उपेक्षा की है। यही कारन है कि इस देश में अलगाववादी आंदोलनों को कभी भारी जनसमर्थन नहीं मिलता । पाकिस्तान में देश का मतलब है पंजाब और पंजाब में भी लाहौर और रावलपिंडी तक ही उनका सोच है। पंजाब के बडे शहरो के लिए पेयजल और खेती के लिए पानी के इंतजाम के लिए सिंध और और बलूचिस्तान जाने वाले नदियों पर बाँध बना दिए हैं जिससे दोनों प्रदेशों में वर्ष भर अकाल रहता है। हिंदूओं के लिए पवित्र माने जाने वाली सिंध नदी में पानी का बहाव अब बहुत कम हो गया है, इसके अलावा सिंधी और ब्लूचियों के मन में पजाब के प्रति अधिक लगाव दिखाने के कारण बहुत रोष है। भारत के आतंकवादियों को पाकिस्तान ने इस्लामाबाद या लाहौर में न रखकर सिंध और बलूचिस्तान में शरण दीं जो आज वहां के लिए सिरदर्द बन गये हैं। दोनों प्रदेशों की जनता अब यह समझ गयी है कि पंजाब के हितों की खातिर उनको बलि का बकरा बनाया गया है-क्योंकि जब पाकिस्तान यह कहता है कि उसके यहां भी आतंकवाद है तो वह इन्ही प्रदेशों की तरफ इशारा करता है। इससे पंजाब को कोई परेशानी नहीं है। सारा संकट सिंध और बलूचिस्तान की जनता पर है। उसका अंदरूनी आतंकवाद भी इस तरह प्रायोजित किया गया है कि पंजाब में शांति रहे और वह विश्व को दिखा सके कि वह एक आतंक प्रभावित देश है।
पानी के मामले में कसूरी का यह बयान पंजाब की जनता को बहलाने के लिए दिया गया है जो इन गर्मियों के मौसम मैं पेयजल संकट का सामना कर रही है । अगर कहीं पंजाब की जनता नाखुश हो गयी तो पंजाब के शासक न घर के रहेंगे न घाटा के । जहां तक भारत का प्रश्न है तो इस समय भारत कि नदियों में ही पाने सूख जाता है तो उसके द्वारा पानी को रोकना का प्रश्न ही नही है। फिर भी भारत को सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान की रणनीति खुराफाती दिमाग वाले लोग चलाते हैं जिनका असितत्व ही भारत विरोध पर निर्भर है।
Apr 8, 2007
फिर भी बंगलादेश हीरो नहीं है
क्रिकेट की सुप्रीम बाड़ी की बैठक समाप्त गयी और जिस तरह के फैसले लिए गए वह केवल लीपापोती से ज्यादा कुछ ज्यादा नहीं है। विश्व कप में भारतीय टीम कि हार का ठीकरा किसी एक पर फोड़ना संभव नहीं था। जिस पर फूटता वह दुसरे की पोल खोल देता। जब सब फंसे हौं तो उनमें एकता हो ही जाती है। बंगलादेश से हारना ऐसे मान लिया गया कि जैसे कोइ आम बात है। कल दक्षिण अफ्रीका बंगलादेश से हार गया तो भारतीय खिलाड़ियों ने राहत की सांस ली होगी मगर जनाब दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ियों में भी कितने दूध के धुले होंगे । उन पर भी फ़िक्सिंग के आरोप है। उनके खिलाड़ियों से भारत की पुलिस पूछताछ कर चुकी है हो सकता है कि भाई लोगों ने संदेश भेजा हो कि यार, जरा संकट से उबारो हमारी टीम इंडिया भारी संकट में है, अगर यहाँ क्रिकेट मिट तो हम भी मिट कर कहॉ जायेंगे । अपनी टीम के नाक बचाने वास्ते भारतीय मीडिया कितना भी कहे जो क्रिकेट के जानकार खेल प्रेमी है वह आज बंगलादेश की टीम को आज भी लचर मानते हैं । दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ियों ने भी सोचा होगा कौन एक हार से फर्क पड़ता है? यह सोचकर वह पिट गए हौं । पर वह थोडा उस्ताद हैं इस तरह मैच हारते हैं जैसे जमकर खेलें हों । ऐसा लगता ही नहीं है कि उन्होंने जीतने की कोशिश न की हो। बहरहाल बंगलादेश की जीत का यह मतलब कतई नहीं है वह कोइ शक्तिशाली या मजबूत टीम है
Apr 5, 2007
लिखता है तो बिकना सीख नहीं तो भूखा रहना सीख
हिंदी में लिखने वालों को सम्मान उनके द्वारा लिखी गयी रचनाओं के स्तर और संख्याओं के आधार पर नहीं वरन उनके द्वारा अर्जित धन के अनुसार दिया जाता है। जब मैंने लिखना शुरू किया तब मुझे पता था कि इससे होने जाने वाला कुछ नहीं है- यह मेरी रोजी रोटी का आधार नहीं बन सकती । फिर भी मैंने लिखने का इरादा नहीं छोडा वजह! मैं इस समाज में रहूँगा पर इसका हिस्सा नहीं बनूंगा यह तय कर लिया तो तय कर लिया। साथ ही तय किया कि अपनी लेखनी की चर्चा केवल लेखकों से ही करूंगा। मैंने अपने मन की बात अपने घर पर भी किसी को नहीं बतायी। क्योंकि मैं जानता था इस समाज में जितनी आध्यात्म की प्रधानता बाहर से दिखाती है अन्दर उससे ज्यादा धन की प्रधानता है। आध्यात्म में भी मेरा सदैव मेरा झुकाव था पर उसमें भी मैं एकांतप्रिय था। लोग यहाँ अपने विश्वास को ज्यादा श्रेष्ठ बताते हैं पर इसके लिए उनके पास कोइ प्रामाणिकता नहीं है। हाँ, अगर किसी के विश्वास पर बहस करो तो वह लड़ने को तैयार हो जाता। जिस पर जैसे मैं विश्वास करता हूँ वैसे ही दूसरा भी उस पर करे -यह भाव लोगों में रहता है। भक्ती में भी जो अंहकार है उसकी यहां व्याख्या करने की जरूरत नहीं है। कुल मिलाकर हर जगह धन का बोलबाला है। ऐसे में लेखक की इज्जत होना संभव नहीं है। इसका कारण भी है कि हमारे धर्म ग्रंथों मैं ही इतनी कहानियाँ हैं कि आदमी उन्हें पढे तो पारी ज़िन्दगी पद्र जाये। मैं आज भी जब अपने धर्म ग्रंथों को पढता हूँ तो वो मेरे को नयी लगती हैं । फिर भी लिखने की आदत से बाज नहीं आता हूँ क्योंकि जो भी हिन्दी का लेखक लिख रहा है वह उन्हें कहानियो और विचारों को अपने से नवीनता प्रदान करता है। पर अन्य लोगों की बात तो छोरिये घर के लोग तक इस बारे में सहमत नहीं होते।
उस दिन एक सज्जन मुझसे मिलने आये उस समय मैं ब्लोग में लिख रहा था । वह सीधे मेरे कमरे में आये और बोले क्या कर रहे हो ?
मैंने कह-"कुछ नहीं खेल रहा हूँ । तुमने मुझे ताश खेलना खेलना सिखाया है वही काम् कर रहा हूँ।
वह खुश हो गये, और बोले -"अच्छा कर रहे हो, इससे समय पास होता है और मनोरंजन भी होता है।"
इतने हमारी श्रीमतीजी पीछे से आकर बोलीं-"नहीं भायी साहब यह खेल नहीं रहा थे बल्कि अपना ब्लोग लिख रहे हैं ।"
वह भोंच्क्क रह गए और बोले-"यार तुम्हें इससे कुछ मिलता है/"
मैंने मना किया तो बोले-"फिर क्या फायदा ? कुछ पैसा मिले तो लिखो, नहीं तो बेकार है मेहनत ।
मैंने उनेहं बिठाया और बातचीत का विषय बदल दिया। उनके जाने के बाद मैंने पत्नी से कहा -" क्या जरूरत थी उसे यह बताने की कि मैं ब्लोग लिख रहा हूँ।
पत्नी ने कहा-"तो क्या हुआ वह कोई गलत थोड़े ही कह रहे थे। भला इससे तुम्हें मिलता क्या है/"
मैंने पत्नी से कहा -"ताश खेलने से क्या मिलता था ?मनोरंजन ! वह इससे भी मिल रहा है।
उनके जाने का बाद मैं सोचने लगा कि' ताश खेलने में समय खराब करने से बुरा ब्लोग लिखना जो लोग मानते हैं उनसे बहस करना बेकार है। इस समाज में एक ताश खेलना मनोरंजन माना जा सकता है पर साहित्य लेखन को नहीं। हाँ बाहर जरूर सम्मान मिल जाये अपने लोगों से इसकी आशा करना बकर है। फिर अपने एक साहित्यक मित्र के शब्द हमेशा याद रहे जो उन्होने अपनी कविता में कहे थे."लिखना है तो बिकना सीख नहीं तो भूखा रहना सीख।"
मेरा वह मित्र अपने पुत्र के निधन के बाद भी जीवटता के साथ जीं रहा है और इस ब्लोग के लिए उसने ही प्रेरित किया था। बहुत दिनों से वह मुझे मिला नहीं है और मैं सोच रहा हूँ कि या तो उसका भी ब्लोग बनवाकर उसकी कवितायेँ प्रकाशित की जाएं या अपने ब्लोग में उनको स्थान दिया जाये। मेरा वह मित्र केवल लेखक होने के कारण ही है वरन हम कभी एक दुसरे के घर नहीं गए । उसने मेरे अन्दर के लेखक को जिंदा रखने में जो योगदान दिया है उसे मैं कभी भूल नहीं सकता।
उस दिन एक सज्जन मुझसे मिलने आये उस समय मैं ब्लोग में लिख रहा था । वह सीधे मेरे कमरे में आये और बोले क्या कर रहे हो ?
मैंने कह-"कुछ नहीं खेल रहा हूँ । तुमने मुझे ताश खेलना खेलना सिखाया है वही काम् कर रहा हूँ।
वह खुश हो गये, और बोले -"अच्छा कर रहे हो, इससे समय पास होता है और मनोरंजन भी होता है।"
इतने हमारी श्रीमतीजी पीछे से आकर बोलीं-"नहीं भायी साहब यह खेल नहीं रहा थे बल्कि अपना ब्लोग लिख रहे हैं ।"
वह भोंच्क्क रह गए और बोले-"यार तुम्हें इससे कुछ मिलता है/"
मैंने मना किया तो बोले-"फिर क्या फायदा ? कुछ पैसा मिले तो लिखो, नहीं तो बेकार है मेहनत ।
मैंने उनेहं बिठाया और बातचीत का विषय बदल दिया। उनके जाने के बाद मैंने पत्नी से कहा -" क्या जरूरत थी उसे यह बताने की कि मैं ब्लोग लिख रहा हूँ।
पत्नी ने कहा-"तो क्या हुआ वह कोई गलत थोड़े ही कह रहे थे। भला इससे तुम्हें मिलता क्या है/"
मैंने पत्नी से कहा -"ताश खेलने से क्या मिलता था ?मनोरंजन ! वह इससे भी मिल रहा है।
उनके जाने का बाद मैं सोचने लगा कि' ताश खेलने में समय खराब करने से बुरा ब्लोग लिखना जो लोग मानते हैं उनसे बहस करना बेकार है। इस समाज में एक ताश खेलना मनोरंजन माना जा सकता है पर साहित्य लेखन को नहीं। हाँ बाहर जरूर सम्मान मिल जाये अपने लोगों से इसकी आशा करना बकर है। फिर अपने एक साहित्यक मित्र के शब्द हमेशा याद रहे जो उन्होने अपनी कविता में कहे थे."लिखना है तो बिकना सीख नहीं तो भूखा रहना सीख।"
मेरा वह मित्र अपने पुत्र के निधन के बाद भी जीवटता के साथ जीं रहा है और इस ब्लोग के लिए उसने ही प्रेरित किया था। बहुत दिनों से वह मुझे मिला नहीं है और मैं सोच रहा हूँ कि या तो उसका भी ब्लोग बनवाकर उसकी कवितायेँ प्रकाशित की जाएं या अपने ब्लोग में उनको स्थान दिया जाये। मेरा वह मित्र केवल लेखक होने के कारण ही है वरन हम कभी एक दुसरे के घर नहीं गए । उसने मेरे अन्दर के लेखक को जिंदा रखने में जो योगदान दिया है उसे मैं कभी भूल नहीं सकता।
Apr 4, 2007
सुबह सचिन ने मूहं खोला, शाम गुरू का सिंहासन डोला
सुबह जब मैंने सचिन का बयां टीवी पर देखा और सुना मुझे लगा कि अब गुरू ग्रेग का खेल होता है। दरअसल ऐसा लोगों को लग जरूर रहा है कि सचिन के साथ देश के क्रिकेट प्रेमियों की सहानुभूति है - यह एक भरम है। सचिन इस समय उन लोगों के लिए ही महत्वपूर्ण है जिनसे या तो जिनका आर्थिक फायदा है या अभी भी जिनके विज्ञापन टीम इंडिया के वर्ल्ड कप से बाहर होने के कारण जंग खा रहे हैं, और वह उनको अभी जिंदा रखने के लिए सचिन का कैरियर को आगे जारी रहते देखना चाहते हैं। जहां तक सचिन के खेल से भारतीय टीम को लाभ मिलने का प्रश्न है तो उसे जीवनदान तभी मिल सकता है जब सचिन वहां से हट जाये। मैं तो साफ कहता हूँ कि भारतीय टीम में कोई भूतपूर्व कप्तान नहीं रहना चाहिऐ। किसी भी भूतपूर्व कप्तान ने एन्मौके पर अपनी टीम को जितने का कम किया हो ऐसा मुझे याद नहीं आता। सचिन जब कप्तान थे तो अजहर खेलते जरूर थे पर टीम का साथ तब छोड़ते थे जब टीम को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत होती थी । वह कप्तान बने तो सचिन ने भी अपने रिकॉर्ड के लिए अनेक परियां खेलीं पर भारत्त कितनों में जीत पाया इस पर हमारे क्रिकेट विशेषज्ञ अभी तक एक मत नहीं हो पाये हैं। फिर सोरभ कप्तान बने तो फिर सचिन कभी अन्दर तो कभी बाहर होते रहे । कभी बीमारी का बहाना तो कभी चोट का बहाना। मज़े की बात यह कि जिन दिनों सचिन नहीं खेले उन्हीं दिनों सह्बाग का आगमन हुआ और वह अच्छ खेलते हुए उस मुकाम तक पहुंच गये जहां सचिन थे। धोनी का आगमन भी सचिन की अनुपस्थ्त में हुआ। पर तमाम तरह के दबावों के चलते हमेशा ही सचिन की जगह हमेशा बनाए रखी गयी । अगर हम इस देखें तो वेणुगोपाल राव, वसीम जफर और रोमेश पोवार जैसे खिलाडी जो इस विश्व कप के लिए ही लाए गये थे उन्हें इसीलिये टीम से हटाया गया कि सचिन को जगह देने के लिए सौरभ को भी रखना जरूरी था। फिर उसे रख रहे हैं तो सह्बाग को रखना ही था। सह्बाग के बारे में तो चयन समिति के अध्यक्ष दिलीप वेंगसरकर का कहना था कि उसे शामिल करने के लिए राहुल द्रविड़ ने दबाव डाला था। अब इस बात पर विचार करें तो यह समझ में आएगा कि उन्हें पता था कि दो भूतपूर्व कप्तानों के रहते टीम की बल्लेबाजी क्रम में उनके भरोसे का बल्लेबाज़ होना जरूरी है। यह द्रविड़ का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि सह्बाग नही चल पाये क्योंकि वह अपनी सफलता के नशे में सब भूल चुके थे और टीम बुरी तरह हारी। अगर कहीं भाग्य से वह चल जाते तो अभी तक सौरभ और सचिन अपनी पीठ थपथपा रहे होते।
चैपल को पता था कि सचिन की आलोचना के क्या परिणाम होंगे । फिर भी उन्होने की, क्योंकि उन्होने भी पलटवार की तैयारी कर रखी होगी । न वह जोन राइट की तरह है जो केवल एक किताब लिखकर रह जाये न ही वह वूल्मर की तरह बोलने वाले हैं कि उन्हें नज़रंदाज किया जा सके। अब बात निकली है तो दूर तक जायेगी। वूल्मर ने जो देखा था वह शायद किसी को बता दिया था कि मैं यह जान गया हूँ पर चैपल हमेशा खामोशी से काम करने वाले आद्नी रहे हैं। जहां तक उनके विदेशी होने का मामला है मैं उनका अपमान होते देखना इसीलिये नहीं चाहूँगा। उनके कामकाज को लेकर कोइ आलोचना हो अलग बात है। जहां तक उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है पुराने भारतीय खिलाडी उनकी इज्जत करते हैं। जहां तक सचिन का सवाल है एक बात मैं बता दूं कि अपनी जिम्म्देदारी को व्यवसायिक ढंग से पूरा करना आस्ट्रेलिया वालों से सीखना चाहिऐ -ऐसा मेरा मान ना है। बहरहाल जो हो रहा है उसका संबंध खेल से कम वर्चास्वा बनाले रखने के लिया ज्यादा है.
चैपल को पता था कि सचिन की आलोचना के क्या परिणाम होंगे । फिर भी उन्होने की, क्योंकि उन्होने भी पलटवार की तैयारी कर रखी होगी । न वह जोन राइट की तरह है जो केवल एक किताब लिखकर रह जाये न ही वह वूल्मर की तरह बोलने वाले हैं कि उन्हें नज़रंदाज किया जा सके। अब बात निकली है तो दूर तक जायेगी। वूल्मर ने जो देखा था वह शायद किसी को बता दिया था कि मैं यह जान गया हूँ पर चैपल हमेशा खामोशी से काम करने वाले आद्नी रहे हैं। जहां तक उनके विदेशी होने का मामला है मैं उनका अपमान होते देखना इसीलिये नहीं चाहूँगा। उनके कामकाज को लेकर कोइ आलोचना हो अलग बात है। जहां तक उनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न है पुराने भारतीय खिलाडी उनकी इज्जत करते हैं। जहां तक सचिन का सवाल है एक बात मैं बता दूं कि अपनी जिम्म्देदारी को व्यवसायिक ढंग से पूरा करना आस्ट्रेलिया वालों से सीखना चाहिऐ -ऐसा मेरा मान ना है। बहरहाल जो हो रहा है उसका संबंध खेल से कम वर्चास्वा बनाले रखने के लिया ज्यादा है.
Apr 3, 2007
आख़िर युवाओं को मौका देने में हर्ज़ क्या है?
अभी भी भारतीय क्रिकेट टीम में नए लोगों को मोका देने की बात प्रभावी ढंग से नहीं की जा रही है । यह आश्चर्य की बात है कि अभी भी पुराने खिलारियों को धोने की तैयारी दिख रही है। लोगों के जज्बातों को समझा नहीं जा रहा है।
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Apr 2, 2007
कोच क्या पूरी कमेटी ही बुलवा लो, किसने रोका है?
देश के बुजर्ग क्रिकेट प्लेयर श्री डूंगरपुर साहब ने फतवा दिया है कि देश का कोइ क्रिकेटर भारतीय टीम का कोच बनने लायक नहीं है। उनका दवा है कि कोई विदेशी आदमी ही इस टीम का उद्धार कर सकता है। गाहे-बगाहे वह क्रिकेट के मामले में फतवे देते रहते हैं। उनको ज्यादा महत्व सामान्य आदमी भले ही भाव न दे पर मुम्बई में रहते हैं और क्रिकेट का मुख्यालय मुम्बई में ही है इसीलिये उनके कहे का प्रभाव होता है, भले वह हमें देखाई न दे।
वह किसी न किसी तरह क्रिकेट में अपना दखल देते ही हैं।
अब उनहोंने यह फतवा दिया है तो उसका परिणाम इस तरह सामने आएगा कि भारतीय क्रिकेट टीम वहीं रहेगी जहाँ है। पता नही भारतीय क्रिकेट में कुश लोग केवल इसीलिये दखल देते हैं कि उन्होने बल्ला हाथ में थामा था या एक दो दिन गें फेंकी थी। मुझे उनकी बात से बहुत तकलीफ पहुंची है। उन्होने तो कपिल के कोच होने पर सवालिया निशां लगा दिया है। यहां मैं उनको बता दूं कि जिस भारतीय क्रिकेट टीम ने १९८३ में वर्ल्ड चुप जीता था उसे न तो कोइ विदेशी कोच मिला था न फि उसे पास कोइ डाक्टर था फिर भी उसने विश्व कप जीता। इन २३ सालों में ऐसा क्या हो गया है कि हमें लगता है कि अब इस देश में न तो कोच पैदा हो रहा है न ही कोइ प्रतिभा है। वेंगसरकर को कोइ प्रतिभा ही नज़र नही आती इस देश में। मेरी एक सलाह है कि दोनों मिलकर जरा मुम्बई से बाहर आकर देखें देश में विदेशियों से ज्यादा लायक कोच मिल जायेंगे । अगर नहीं मिलते तो फिर कोच ही क्यों पूरी कि पूरी क्रिकेट कमेटी ही बहार से बुलावा लो । क्योंकि क्रिकेट अगर नहीं चली तो यहां कमेटियाँ ही जिम्मेदार हैं। और नहीं तो चयन कमेटी ही से बुलवा लो । आख़िर पूरे विश्व का क्रिकेट भारत के पेसे से चल रहा है तो क्या अपने देश का नहीं चलेगा । भारत में प्रतिभा की कमी है या यहां का कोइ आदमी कोचिंग लायक नही है जिन मूहों से कहा जा रहा ह उनमें भी भारत की रोटियां ही जाती हैं कोइ आस्ट्रेलिया वाले नहीं आते खिदमत करने। अपने देश की प्रतिभा का पूरा विश्व लोहा मान रहा है सिवा इन दोनों के। हम तो कह रहे कि कोच क्या क्रिकेट बोर्ड videsh से laao।
वह किसी न किसी तरह क्रिकेट में अपना दखल देते ही हैं।
अब उनहोंने यह फतवा दिया है तो उसका परिणाम इस तरह सामने आएगा कि भारतीय क्रिकेट टीम वहीं रहेगी जहाँ है। पता नही भारतीय क्रिकेट में कुश लोग केवल इसीलिये दखल देते हैं कि उन्होने बल्ला हाथ में थामा था या एक दो दिन गें फेंकी थी। मुझे उनकी बात से बहुत तकलीफ पहुंची है। उन्होने तो कपिल के कोच होने पर सवालिया निशां लगा दिया है। यहां मैं उनको बता दूं कि जिस भारतीय क्रिकेट टीम ने १९८३ में वर्ल्ड चुप जीता था उसे न तो कोइ विदेशी कोच मिला था न फि उसे पास कोइ डाक्टर था फिर भी उसने विश्व कप जीता। इन २३ सालों में ऐसा क्या हो गया है कि हमें लगता है कि अब इस देश में न तो कोच पैदा हो रहा है न ही कोइ प्रतिभा है। वेंगसरकर को कोइ प्रतिभा ही नज़र नही आती इस देश में। मेरी एक सलाह है कि दोनों मिलकर जरा मुम्बई से बाहर आकर देखें देश में विदेशियों से ज्यादा लायक कोच मिल जायेंगे । अगर नहीं मिलते तो फिर कोच ही क्यों पूरी कि पूरी क्रिकेट कमेटी ही बहार से बुलावा लो । क्योंकि क्रिकेट अगर नहीं चली तो यहां कमेटियाँ ही जिम्मेदार हैं। और नहीं तो चयन कमेटी ही से बुलवा लो । आख़िर पूरे विश्व का क्रिकेट भारत के पेसे से चल रहा है तो क्या अपने देश का नहीं चलेगा । भारत में प्रतिभा की कमी है या यहां का कोइ आदमी कोचिंग लायक नही है जिन मूहों से कहा जा रहा ह उनमें भी भारत की रोटियां ही जाती हैं कोइ आस्ट्रेलिया वाले नहीं आते खिदमत करने। अपने देश की प्रतिभा का पूरा विश्व लोहा मान रहा है सिवा इन दोनों के। हम तो कह रहे कि कोच क्या क्रिकेट बोर्ड videsh से laao।
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भारत चीन सीमा पर गोली चलाने की खबर सात दिन बाद आये तो समझ लो वहां नित कुछ बड़ा चल रहा है। ------------------ विरोधी नेता एवं पत्रक...