जब हम आधुनिक लोकतंत्र की बात करते हैं तो उसमें अप्रत्यक्ष रूप से धनपतियों की राज्य का उपयोग अपने हित में करने की प्रवृत्ति स्पष्टतः सामने आती है। एक समय तक भारत में कथित मिश्रित अर्थव्यवस्था-साम्यवादी और पूंजीवाद विचारधारा से निर्मित खिचड़ी चिंतन जैसा ही समझें-अपनाया गया। इसी आधार पर हमारे यहां समाजवाद का नारा भी लगा। यहां यह स्पष्टतः कर दें कि समाजवादी विचारधारा भारत में ही पैदा हुई है। अधिकांश विश्व में पूंजीवादी राजकीय व्यवस्था है पर कुछ देशों फिर वामपंथियेां का शासन है जो मूलतः तानाशाही के सिद्धांतों पर आधारित है। हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से ओतप्रोत विद्वानों को कभी भारतीय दर्शन में वैज्ञानिक आधार पर राज्य और समाज के गठन का विचार सूझा ही नहीं। चूंकि विदेशी विचाराधारा लानी थी और जलकल्याण करते दिखना भी था तो वामपंथी विचाराधारा बहुत अच्छी थी। इधर अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन में भारतीय धनपतियों के अप्रत्यक्ष सहयोग की वजह से उनको खुश रखने के लिये पूंजी की आजादी का पक्ष भी रखना जरूरी था सो समाजवाद की विचाराधारा बनी।
संदर्भ हम नोएडा एक्सेंटेशन को लेकर अधिग्रहीत किसानों की जमीन पर बने आवासीय परिसरों को बढ़ते हुए विवादों को लें। यह उस खिचड़ी व्यवस्था से उत्पन्न वह दृश्य है जो कालांतर में आना ही था। भारतीय धनपतियों का प्रभुत्व आजादी से पहले स्थापित हो चुका था और वह देश को अपने ही आर्थिक नियंत्रण में रखकर आजाद देखना चाहते थे। उन्हें समाजवाद बहुत भाया होगा। दरअसल वामपंथ राज्य के समाज की हर गतिविधि पर नियंत्रण करने का मार्ग बतलाता है। पूंजीवाद इसके विपरीत समाज को आजाद देखना चाहता है। समाजवाद बीच की विचारधारा इसलिये बनी क्योंकि भारतीय धनपतियों को यह लगा कि उनकी तो अपनी शक्ति है इसलिये कोई उन पर नियंत्रण करेगा नहीं पर समाज जितना ही अधिक राज्य के नियंत्रण में रहेगा उतना ही अच्छा है क्योंकि अंततः देश की गतिविधियों का नियंता तो उनका ही धन है।
किसानों की रक्षा, गरीब का कल्याण, बीमार के लिये इलाज और नारी उद्धार के नारों के चलते जहां अनेक बुद्धिजीवी और समाज सेवक प्रचारक जगत में जननायक बनते रहे वहीं धनपतियों ने भी खूब नामा कमाया। आप आयकर की दरों को ही देख लें। एक समय बहुत अधिक दर थी। ऐसे में इस पर कोई यकीन नहीं कर सकता कि किसी धनपति ने ईमानदारी से यह कर दिया होगा। स्पष्टतः धनपतियों को पता था कि वह अपने दावपैंचों से अपना साम्राज्य बचाते रहेंगे पर कोई दूसरा बड़ा धनपति नहंी बन पायेगा। बन भी गया तो कालाधन होने की वजहा से उनके समकक्ष खड़ा नहीं हो सकेगा।
इसके अलावा भी कृषि जमीन को आवासीय स्थल में परिवर्तन करने के भी अनेक प्रतिबंध रहे। स्थिति यह हो गयी थी कि देश की अनेक कॉलोनियां केंद्रीय और सरकारी संस्थाओं की छत्रछाया में बनी। निजी क्षेत्र में आवास निर्माण तो बहुत कम ही होता था। देश में आवास समस्या थी पर यह सरकारी संस्थायें धीरे धीरे उसे समायोजित करती रहीं। देश का एक बहुत बड़ा मध्यम वर्ग इन्हीं कॉलोनियों में आया जिनमें बुद्धिजीवी भी थे। तब तक मकान निर्माण लोगों की निजी क्षमताओं के इर्दगिर्द ही सीमित था इसलिये उसमें निजी ठेकेदार और व्यवसायी एक सीमा तक ही लाभान्वित होते थे।
कालांतर में उदारीकरण के चलते देश की स्थितियां बदली हैं। अब मकान निर्माण एक भारी फायदे का धंधा बन गया है। यह अकेला एसा धंधा है जिसमें कोई योग्यता होना जरूरी नहीं है। बस दावपेंच आना चाहिए। अगर हम कोई हजारों का टीवी या फ्रिज खरीदते हैं तो दुकानदार गारंटी या वारंटी देता है पर मकान निर्माण करने वाला व्यवसायी कोई गारंटी नहीं देता। न इसका कोई कानूनी प्रावधान किया गया है। उपभोक्ता फोरम के अनेक चर्चित निर्णयों में कोई मकान से संबंधित नही होता।
भारत में उदारीकरण की गति धीमी होने की शिकायत करने वाले उद्योगपति कभी यह मांग नहीं करते कि आम जनता के हितों की रक्षा के लिये उसे आजादी दी जाये। वह मकान बनाना चाहते हैं पर चाहते हैं कि उसके लिये सरकारी संस्थाायें अपनी ताकत से ज़मीन खरीद कर उनको दें। इतना ही नहीं वह कृषि भूमि को आवासीय स्थल में बदलने का कानून रद्द करने की बात भी नहीं करते जिससे निजी लोग स्वयं ही जमीन खरीद कर मकान बनाने लगें। अगर ऐसा हो गया तो इन धनपतियों को थोक में इतनी जमीन नहीं मिलेगी क्योंकि तब सामान्य लोग उसे खरीद चुके होंगे। मकान निर्माण में गारंटी का नियम लागू करने की भी यह मांग नहीं करते। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय धनपति नहीं चाहते कि धन का विकें्रदीयकरण हो क्योंकि उनके आने वाली पीढ़ियां राज्य नहीं कर पायेंगी।
राजधानी दिल्ली में नोएडा उत्तरप्रदेश का ऐसा शहर है जो दिल्ली का ही हिस्सा लगता है। जिसे दिल्ली में जगह नहीं मिली वह नोएडा में मकान ढूंढ रहा है। तय बात है कि वहां मकानों के लिये कृषि भूमि ही आवासीय स्थल बन सकती है। जैसा कि आरोप लगाया है कि किसानों को कम मुआवजा देकर भूमि ली गयी और वहां महंगे आवास बनाये गये। अब अदालत के निर्णय के बाद औद्योगिक विकास के नाम पर कृषि भूमि को आवासीय स्थल में बदलने पर भी नये सिरे से विचार प्रारंभ हो गया है।
किसानों को पैसा कम मिला पर उन्होंने लिया। उधर फ्लैट लेने वालों ने बिल्डर को पैसा दिया। अब अदालत के निर्णय से किसानों से जमीन अधिग्रहण रद्द हो गया है। चूंकि अभी निर्णय ऊंची अदालतों में जाना है इसलिये कहना कठिन है कि आगे क्या होगा पर इतना तय है कि इसमें धनपतियों को कोई हानि नहीं है। दरअसल फंसा तो वह निवेशक है जिसने फ्लैट के लिये पैसा दिया है। जिसने अपना पैसा दिया है वह सब्र कर सकता है पर जिसने कर्ज लेकर किश्त दी है उसके लिये भारी संकट बन सकता है। जिस तरह मकान के लिये बैंक कर्ज दे रहे हैं उसे लेने वालों की संख्या बढ़ गयी है। मध्यम वर्ग कर्ज लेने के लिये हमेशा तैयार रहता है।
जहां तक किसानों को जमीन वापस मिलने का सवाल है तो उसमें भी कठिनाई आयेगी। इसका कारण यह है कि अनेक किसानों ने टीवी चैनलों पर बताया कि वह पैसा लेकर खर्च कर चुके हैं इसलिये उसे वापस करने का संकट उनके सामने है। ऐसे में मुआवजे की रकम दिये बिना उनको जमीन वापस मिलना मुश्किल है। इसके अलावा जब उनकी भूमि पर खेती होती थी तो उसका सीमांकन अब कैसे दुबारा होगा। वहां तो अनेक तरह के निर्माण कार्य चल रहे हैं। हैरानी की बात है कि अदालत में मामला होते हुए भी वहां निर्माण कार्य होने दिया गया। वैसे देखा जाये तो अदालतों के माननीय न्यायाधीश तो अपने सामने उपस्थित तथ्यों को देखते ही फैसला देते हैं इसलिये उनके निर्णय का समर्थन करना चाहिए। ऐसा लगता है कि भवन निर्माताओं को अपने पक्ष में फैसला होने का कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास रहा होगा। न्यायालय के निर्णय से उनका यह भ्रम टूट गया होगा कि पैसे और ताकत से कुछ भी किया जा सकता है। सुनने में आया है कि अब विनिवेशक भी न्यायालय में जा रहे हैं। अभी तक मामला किसानों की जमीन और उनके अधिग्रहण तक ही सीमित था और न्यायालयों के सामने इसी संदर्भ में तथ्य प्रस्तुत किये गये होंगे तो निर्णय इसी तरह आना था। अब विनिवेशक भी एक पक्ष बन रहे हैं तो न्यायालयों में उनकी बात भी सुनी जायेगी। इस मामले के आगे बढ़ने की संभावना है।
आगे जो निर्णय होंगे वह तो एक अलग बात है पर मुख्य बात यह है कि एक तरफ बड़े धनपति अपनी ताकत के दमपर चाहे जो हासिल कर लेते हैं पर सामान्य आदमी के लिये हर चीज प्राप्त करना कठिन इसलिये बना दिया गया है ताकि वह मजबूरों की भीड़ का हिस्सा बन रहे। इससे वह भारतीय धनपतियों को अपने उत्पादों, भवनों और अन्य सुविधाओं के लिये प्रयोक्ता के रूप में मिलता रहे। इसलिये धनपति चाहते हैं कि राज्य का समाज पर कठोर नियंत्रण रहे और उस पर तो उनका निंयत्रण अंग्रेजों के समय था और अब भी है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग
‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।