May 29, 2007

कुछ न लिखने से तो कविता लिखना ही अच्छा

NARAD:Hindi Blog Aggregator
पिछले कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग ब्लोगों पर आने वाली कविताओं पर ज्यादा खुश नहीं होते उनको लगता है कि ऐसे लोग केवल जगह घेर रहे हैं। जैसे-जैसे ब्लोगों के संख्या बढ रही है वैसे वैसे कविताओं की रचनाएं में भी बढ़ना स्वाभाविक हैं । इस पर नाखुश होने की बजाय ऐसे कवियों को प्रोत्साहन ही दिया जाना चाहिए जो विपरीत हालतों में कुछ लिख तो रहे हैं, और हिंदी ब्लोग अभी अपने शैशव काल में है और उसे इस तरह की रचनाओं की आवश्यकता भी है । अभी तो कई लोगों को यही नहीं पता कि हिंदी में ब्लोग लिखे कैसे जा सकते हैं । मैं अपने आस-पास के लोगों को जब अपने ब्लोगों के बारे में बताता हूँ तो वह सुनते हैं पर उनके कोई ऎसी प्रतिक्रिया नहीं देते जिससे मेरा उत्साहवर्धन हो । स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है और लोग जब मुझसे मिलते हैं तो उनकी प्रशंसा करते हैं। वह मेरे रचना पर मेरे सामने सकारात्मक और कुछ लोग नकारात्मक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं। जितना पिछले तीन माह में जितना मैं इन ब्लोगों में लिख चुका हूँ उतना तो मैं दो साल में भी नहीं लिख पाता , पर नये शौक़ की वजह से यह कर पा रहा हूँ पर वास्तविकता यह है कि इसमें जितनी मेहनत है उतनी कोई करना नहीं चाहेगा । कोई आर्थिक फायदा न हो तो ऐसा मनोरंजन भी कौन चाहेगा ?

मेरे मित्र मुझसे हमेशा कहते हैं तुम तो कवितायेँ न लिखकर केवल व्यंग्य, कहानी और हास्य-व्यंग्य लिखा करो । मेरे एक मित्र है जो अक्सर मुझे मेरी गद्य रचनाओं पर दाद देते हैं पर जब कोई कविता छपती है तो उसकी चर्चा नहीं करते । एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप कभी मी कविताओं पर दाद नहीं देते क्या बात है?

तो वह मुझसे बोले कि -" तुम जो कवितायेँ लिखते है उनमें विषय अत्यंत गूढ़ होते है या एकदम हलके और उनका प्रस्तुतीकरण भी काव्यात्मक कम गद्यात्मक अधिक होता है और मुझे लगता है कि तुम मेहनत से बच रहे है और दूसरा यह कि इतनी गूढ़ बात पर मैं उससे ज्यादा पढना चाहता हूँ जितना आपने लिखा होता है, तुम्हारे गद्य रचनाओं का तो मैं प्रशंसक हूँ । "

उनकी बात सुनकर मैं हंस पडा तो वह बोले-'' मैं सच कहूं कि तुम गद्य ही लिखा करो, और लोग भी तुम्हें गद्य लेखक के रुप में ही देखना चाहते हैं। कविता तो कोई भी लिख सकता है ।"

कई पत्रिकाओं के संपादक भी मुझसे पद्य रचनाओं की बजाय गद्य रचनायें ही माँगते हैं। फिर भी मौका मिलते ही मैं कविता लिखने से बाज नहीं आता, क्योंकि कई बार कविता विषय कोई संजोये रखने के काम भी आती है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं कि किसी घटना को देखकर कोई विचार पैदा होता है तो उस समय इतना समय नही होता कि या मन नहीं होता कि कोई गद्य रचना लिखी जाये तब कविता में उसे लिखकर संचित किया जाना भी कोई आसान कम नहीं है पर अगर उसमें दक्ष हैं तो गद्य लेखन भी आसान होता है ।

अभी मेरे इसी ब्लोग पर पिछली रचना "हाँ, मैं उसे जानता हूँ" मेरे पास रजिस्टर में पद्य के रुप में दर्ज थी और उसे मैं ब्लोग पर उसी रुप में लिखने वाला था पर मुझे लगा कि इसे थोडा विस्तृत ढंग से लिखने का प्रयास करना चाहिए, और तब मैंने यह महसूस किया कि अगर मैं उस समय इस पर कविता नहीं लिखता तो शायद इस गद्य के रुप में प्रस्तुत नहीं कर सकता था।जब मैंने युनिकोड में लिखने का प्रयास शुरू किया तो सबसे पहले कविताएं लिखीं थी और आज भी जब मैं वह पढता हूँ तो लगता है ब्लोग पर जो शुरूआत में कवितायेँ लिख रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिऐ-इस बात के लिए कि वह विपरीत परिस्थतियों में भी लिख रहे हैं । यह देश बहुत विशाल है उतना ही व्यापक हिंदी भाषा का प्रभाव है। हिंदी में लिखने वाले कई नए लेखकों तो यह पता ही नहीं है कि ब्लोग क्या चीज है और हिंदी के गोदरेज टाईप का उनका ज्ञान बहुत अच्छा है, अपने अनुभव से मैं यह जान गया हूँ कि उनके लिए युनिकोड में लिए एक नया अनुभव होगा और बिना किसी प्रोत्साहन के वह शायद ही इतनी मेहनत करने को तैयार हौं, खासतौर से जब इसमें किसी आर्थिक लाभ की कोई ज्यादा आशा तत्काल न हो।
अत: नए लोगों को उनके कविताओं पर भी दाद अवश्य दीं जानी चाहिए। जहाँ तक मेरी काव्य रचनाओं का सवाल है वह अपने विषयों को सजोये रखने के लिए करता ही रहूँगा । अभी मुझे समय लगेगा बड़ी रचनाओं को -जैसे कहानी व्यंग्य , और आलेख-प्रस्तुत करने में समय लगेगा क्योंकि वह एक बैठक में लिखे नहीं जा सकते , और उसे पहले लिखने से पहले कागज पर उतरना जरूरी होगा। मैंने अभी तक जो लिखा है वह सीधे कंप्युटर पर टाईप किया है और कभे स्वयं ही लगता है कि मैं इसे बेहतर करूं। यह तय है पहले कागज़ पर लिख कर उसे फिर कम्प्यूटर पर उतारने में मजा आयेगा। फिलहाल अपने हाथ को साफ करने के लिए कवितायेँ लिख रहा हूँ और चाहता हूँ कि जो नए लिखने वाले कवितायेँ लिख रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।

May 26, 2007

हाँ, मैं उसे जानता हूँ

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सुबह सायकल पर अपने काम पर निकल जाने वाला वह शख्स मुझे आज भी याद है। उसकी आय अच्छी थी पर घूमता वह सायकल पर ही था। गर्मी के दिनों में अपना मकान बनवा रहा था। पसीने -पसीने हो जाता था, लोग कहते भाई गाडी लो लो, वह सुनकर चुप हो जाता था। उसने अपना मकान भी बनवा लिया उसमें रहने भी आ गया और स्कूटर भी ले लिया पर फिर भी घूमता वह सायकिल पर ही था केवल छुट्टी के दिन ही वह अपने परिवार को घुमाने के लिए उसे चलाता था।

लोग कहते कि पैट्रोल के पैसे बचा रहा है वह फिर भी खामोश रहता । इसके पीछे उसके कोई अन्य मजबूरी नहीं थी, बस वह शराब पीता था और उसकी आय में या तो स्कूटर के लिए पैट्रोल आ सकता था या फिर दारू की बोतल। वह बहुत सोचता था कि दारू पीना छोड़ दे पर नहीं छोड़ पाता। सायकल पर जाता था , भीषण गर्मी में उसके शरीर से पसीना इतना निकलता की उसकी पैंट और कमीज से टपकने लगता था आँखों में सूनापन उसके शरीर में धड़कता ऐसा संवेदनहीन ह्रदय कि उसे अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों को अनदेखा करने में भी संकोच नहीं था। अपने लिए उसने ऐसा रास्ता चुना था जो सिवाय तबाही के और कुछ नहीं देता।

वह लक्ष्यहीन चला जा रहा था, उसकी सोच और विचार......वह नहीं जानता था कि उसके मन में क्या चल रहा है, अपनी जिन्दगी को वह बिचारा तो बेमन से जीं रहा था । भला बिना मन भी जिया जा सकता है ? वह बिचारा नहीं जानता था। कितना क्रूर था , नशे में चूर था-अनचाहे वह अपने और परिवार के साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव कर रहा था । लोगों ने उसकी ख़ूब हंसी उडाई-उसके और उसके परिवार की भी । वह ऎसी आग में अपने को जला रहा था जो उसने खुद लगाई थी-वह जनता था कि व्यसन एक आग की तरह ही हैं जो इन्सान को जीते जीं नष्ट कर देते हैं । लोगों से बात करते वह कतराता था -वह अच्छी तरह जानता था कि उसके दिमाग की यह हालत शराब की वजह से हुई है।

रोज तय करता था कि आज नहीं पियेगा पर फिर शाम होते होते उसके दिमाग में पीने से पहले ही शराब का नशा चढ़ने लगता था , उसके कदम शराब की दुकान की तरफ बढ जाते थे , उसकी हालत यह हो गयी थी कि मई-जून की गर्मी के दिनों में भरी दोपहर में पीने लगा था । एकदम पक्का शराबी हो गया था । ग़ैर या अपने उस पर क्या यकीन करते वह खुद अपने पर यकीन नहीं करता था ।

अब कहाँ है वह। मैं उसे ढूँढ रहा हूँ, मुझे पता है वह अब कभी दिखाई नहीं देगा । क्या वह मर गया ? अगर मनुष्य की पहचान देह से है तो जवाब है "नहीं, वह अभी जिंदा है" ।

अगर बुध्दी, विचार और कर्म से है तो-" हाँ वह अब इस दुनियां में नहीं है ।"

वह कुछ कह रहा है मुझे सुनाई नहीं दे रहा, वह दिखता है पर मैं उसे देखना नहीं चाहता। वह मेरे मन को विचलित कर देता है, मेरी आँखें बंद होने लगती हैं , मैं बहुत भयभीत हो जाता हूँ । मगर वह मुस्कराता है , उसका आत्मविश्वास देखते हुए बनता है। उसके इशारे पर मेरी उंगलियां इस कम्प्यूटर पर नाचने लगती हैं और वह आत्मविश्वास से मुस्कराने लगता है । मैं उसकी आखों की चमक को नहीं देख पाता क्योंकि कभी मैंने उसकी आंखों में भयानक सूनापन देखा था-जो मुझे आज भी याद है और जब उसकी तरफ देखता हूँ तो मुझे वह याद आ जाता है और मैं पानी नज़रें फेर लेता हूँ ।

इससे भी ज्यादा भयानक था उसके विचारों और बुध्दी में सूनापन .....जो मुझे डरा देता था । बहुत लिख चुका उसके बारे में, एक शराबी के बारे में और क्या लिखा जा सकता है । हालांकि लिखने के लिए बहुत कुछ है , क्योंकि वही तो लिखवा रहा है यह सब।
मैंने उससे पूछा -"तुम यह तो बताओ तुम शराब क्यों पीते थे ?"

मैंने अपना प्रश्न टाईप कर इधर-उधर देखा। वह वहाँ नहीं था। वह मुझे अब नहीं दिखता पर मेरे साथ ही रहता है। जब सामने आता है तो... ...वह अब भी बिचारा लगता है पर लगता है वह कुछ सोचता है । उसकी आँखें चमकते लगती हैं पर मैं उन्हें नही देखा पाता । किसी शीशे में अपने बाह्य रुप को देखना आसान है पर क्या ऐसा आइना है जिसमे अपने आन्तरिक रुप को देखा जा सकता है। मेरे पास वह भी है पर मैं उस शराबी को उसमें नहीं देखना चाहता। वह डरपोक है , बहुत बोलता है, ज्ञान बघारता है पर जब पूछते हूँ कि-" तुम शराब क्यों पीते थे?" तो दुम भागकर भाग जाता है।

मैं सोचता हूँ कि मुझे ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिए । आख़िर वह एक शराबी था और मैं उसे जानता था फिर उसे पूछकर परेशान नहीं करना चाहिऐ । हो सकता है कि वह बिचारा.........इस प्रश्न का उत्तर खुद नही जानता हो । मैंने देखा जैसे ही यह रचना लिख चुका वह कहीं मेरे आसपास मंडरा रहा है, मैं उसे देखना चाहता हूँ पर कुदरत ने कोई ऎसी चीज ही नहीं बनाए जो आदमी अपने सामने बैठाकर खुद को देख सके । अगर आप मुझे कांच देखने को कहेंगे तो यकीन करें वह इसमे मेरी मदद नही कर सकता ।

May 25, 2007

चलना नाम है ज़िन्दगी का

NARAD:Hindi Blog Aggregator
थका हुआ शरीर उदास मन
सूनी आँखें और कांपती जुबान
पूछते है पता वह सुख और ख़ुशी का
ओढ़े हैं लिबास स्वार्थों का
बैठने और सोने को माना है आराम
हवा में उड़ने की चाह
एक-एक कदम चलना
प्रतीक माना बेबसी का
आकाश की तरफ देख उसे छूने की चाह
जिस पर सदा जीवन टिका है
यकीन नहीं उस जमीन का
भ्रम में जिए जा रहे हैं
सुख के लिए दुःख के
रास्ते जा रहे हैं
क्षय करते हैं बदन का
पर ठानी है जिसने
एक-एक कदम
जीवन-पथ पर आगे बढाने की
अपने हाथ से युध्द लड़ने की
सोने की तरह निखरने के लिए
अपने उर्जा से उत्पन्न
अग्नी में जलने की
चहकता है उसका मन
तना रहता है बदन
बनता है घर ख़ुशी का
उनके क़दमों पर सुख और आनन्द
बिछ्ता है कालीन की तरह
वह नहीं थामते कभी दामन
बेबसी का
उनके लिए
चलना नाम है जिन्दगी का
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May 24, 2007

झूठी शान की खातिर

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रुप रचाएं साधू का
चाल, चरित्र और चाहत असाधु की
यज्ञ करें राष्ट्र के कल्याण के लिए
मूहं मैं राम, बगल में छुरी
बगला भगत पर टिकी धर्म की धुरी
कौन किसको साधे
कौन किससे सधे
सबने निज स्वार्थ ओढ़ लिए
माया के अँधेरे में भटक रहे हैं
एअर कन्डीशन कमरे में सांस ले रहे हैं
भ्रम,भय और भ्रष्टाचार का अँधेरा फैलाकर
लोगों को रोशनी के अहसास बैच रहे हैं
खालीपन है सबकी आँखों में
इन्सान तरस रहा है
इन्सान देखने के लिए
कहीं समंदर का पानी मीठा बताएं
कभी भगवान को दूध पिलायें
कही मूर्ती के आंसू टपक्वायें
इंसानियत और ईमान ढूंढते थक गये
किसी इन्सान में देखने के लिए
कौन कहता है कि
मजहब नहीं सिखाता बैर रखना
दुनियां में हर जंग पर
धर्म-मजहब का नाम है
इंसानों के बीच खडी है दीवार
इनके नाम पर
सब लड़ रहे है अपने -अपने
पंथ के गौरव के लिए
बनाया था इश्वर ने
इन्सान को आजादी से
जीने के लिए
उसने स्वर्ग के मोह में
अपने को गुलाम बना लिया
जात , भाषा और धर्म की
झूठी शान की खातिर लड़ने के लिए
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May 23, 2007

सागर की तरह होता है मन

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सागर की तरह मन है मेरा
जब भी लहरों से खेलता है
कुछ शेर ही जुबान से
कहला कर दम लेता है
मैं भी उसे नहीं रोक पाता
बहने देता हूँ उसके भावों को
दिमाग मेरा किनारा कर लेता है
मैं जानता हूँ कि मन चंचल होता है
शेरों से अठखेलियां करता है
तो क्या बुरा करता है
बस चन्द अल्फाजों की
ख़ुराक ही तो लेता है
मैं उसे तड़पाऊंगा
वह मुझे भटकाएगा
मैं शेर नहीं लिखूंगा
वह व्यसनों की तरफ भगाएगा
मैं मन को काबू में रखने की बात
कभी नहीं मानता
दिमाग से उसकी दिशा तय
करना संभव है
पर मन को मारकर भला
कौन जीवन जीं लेता है
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सब कुछ पाकर भी मन
खुश क्यों नहीं होता
हर पल भटकाए जाता है
दौलत और शौहरत के
हिमालय पर पहुंचकर भी
उसे चेन क्यों नहीं आता है
वह उदास क्यों हो जाता है
कुछ सवाल उससे करो
कुछ करो अपने से
उत्तरों में ही रास्ता नज़र आता है
जब तुम स्वार्थ पूरा करते हो
वह परमार्थ चाहता है
जब तुम दुश्मन बनाते हो ज़माने को
वह दोस्त बनाना चाहता है
वह तड़पता है तुमसे बात करने को
तुम उसे अपनी ख्वाहिशों से ढक लेते हो
और वह उदास हो जाता है

May 19, 2007

अपने आंसू धीरे-धीरे बहाओ

NARAD:Hindi Blog Aggregatorशिष्य के हाथ से हुई पिटाई
गुरुजी को मलाल हो गया
जिसको पढ़ाया था दिल से
वह यमराज का दलाल हो गया
गुरुजी को मरते देख
हैरान क्यों हैं लोग
गुरू दक्षिणा के रुप में
लात-घूसों की बरसात होते देख
परेशान क्यों है लोग
यह होना था
आगे भी होगा
चाहत थी फल की बोया बबूल
अब वह पेड युवा हो गया
राम को पूजा दिल से
मंदिर बहुत बनाए
पर कभी दिल में बसाया नहीं
कृष्ण भक्ती की
पर उसे फिर ढूँढा नहीं
गांधी की मूर्ती पर चढाते रहे माला
पर चरित्र अंग्रेजों का
हमारा आदर्श हो गया
कदम-कदम पर रावण है
सीता के हर पग पर है
मृग मारीचिका के रूपमें
स्वर्ण मयी लंका उसे लुभाती है
अब कोई स्त्री हरी नहीं जाती
ख़ुशी से वहां जाती है
सोने का मृग उसका उसका हीरो हो गया
जहाँ देखे कंस बैठा है
अब कोइ नहीं चाहता कान्हा का जन्म
कंस अब उनका इष्ट हो गया
रिश्तों को तोलते रूपये के मोल
ईमान और इंसानियत की
सब तारीफ करते हैं
पर उस राह पर चलने से डरते हैं
बैईमानी और हैवानियत दिखाने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते लोग
आदमी ही अब आदमखोर हो गया
घर के चिराग से नहीं लगती आग
हर आदमी शार्ट सर्किट हो गया
किसी अवतार के इन्तजार में हैं सब
जब होगा उसकी फ़ौज के
ईमानदार सिपाही बन जायेंगे
पर तब तक पाप से नाता निभाएंगे
धीरे धीरे ख़ून के आंसू बहाओ
जल्दी में सब न गंवाओ
अभी और भी मौक़े आएंगे
धरती के कण-कण में
घोर कलियुग जो हो गया

May 17, 2007

जब सब्जी खरीदने में कला की जरूरत नहीं होगी

NARAD:Hindi Blog Aggregator
रांची और इन्दौर में सब्जी के फूटकर व्यापारियों द्वारा द्वारा रिलायंस और सुभीक्षा के कंपनियों के व्यापार में प्रवेश का जमकर विरोध किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि विश्व बाजार में आ रहे परिवर्तनों का भारत के परंपरागत व्यापार पर प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है , हालांकि इन दोनो जगह हो रहे प्रदर्शनों में वहां के स्थानीय कारण ही जिम्मेदार लगते हैं , और इन दोनों कंपनियों के सब्जी के फूटकर व्यापार में प्रवेश से कोई ज्यादा भूचाल आने वाला है इसकी कोई अभी निकट भविष्य में संभावना भी नहीं लगती।

देश में मौजूद कुछ मॉल में यह काम पहले ही शुरू हो चुका है और कहीं से किसी प्रकार के विरोध की खबर नहीं थी , और अचानक इस तरह विरोध शुरू होने के पीछे कोई राजनीतिक या स्थानीय व्यवसायिक कारण होने की संभावना इसी लिए भी हो सकती है क्योंकि जिन इलाकों में यह मॉल हैं या तो पोश इलाक़े हैं या नगरों के मध्य में स्थित हैं , और वहां से कुछ लोगों को ज्यादा फायदा है और वह इसे गवाना नहीं चाहते । भारत में जितने भी महानगर और नगर हैं वहां सब्जी मंडियां है और शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहाँ कोई इलाका सब्जी मंडी के रुप में नहीं जाना जाता हो।खेरीज सब्जी व्यापार और उत्पादन में करोड़ों लोगों लगे हैं और एक अरब दस करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोई एक कंपनी इसका व्यापार करने का सामर्थ्य नहीं रखती । परंपरागत खैरिज सब्जी व्यापार के मूल स्वरूप में बदलाव आने में अभी कयी बरस लग जायेंगे । हाँ अगर यह कंपनिया जब पूरे सामर्थ्य सा काम करेंगी तो उन इलाकों और उपभोक्ताओं की रुचियों पर नियत्रण कर सकती हैं जो नए और धनाढ्य प्रवृति के हैं। अभी इन इलाकों पर रैहडी वालों का एक छत्र नियंत्रण है और एक तरह से माने तो यह भारत के परंपरागत खैरिज व्यापार का ही नया रुप हैं जो शहरों के ब्रह्द रुप लेने की साथ ही पनपा है , जब शहर छोटे थे तो लोग पैदल ही मंडी की तरफ निकलकर अपना सामान ले आते थे। अब जब सभी जगह कालोनियां बन गयी हैं तो रेह्डी वालों को भी वहाँ सब्जी बेचकर रोजगार प्राप्त करने का अवसर मिल गया। अब इन कंपनियों के आने से उन्हें एक ऎसी चुनौती का सामना उन्हें करना होगा जिसके लिए वह तैयार नहीं है,और इस तरह प्रदर्शन कर रहे हैं। हालांकि इसके लिए कोई वह उचित कारण नहीं बता सकते क्योंकि यहां सभी को व्यापार करने का अधिकार प्राप्त है वह चाहे कोई कंपनी क्यों न हो।दरअसल अब उनके सामने अपने व्यवसाय को विश्वसनीय बनाने के चुनौती आने वाली है। अभी तक उन्होने अपना व्यवसाय किया पर आम उपभोक्ता कभी उनसे सन्तुष्ट नहीं रहा और कम तोलना और अधिक भाव बताने की आदत ने समाज में ऎसी हालत बना दीं कि आज सब्जी बेचना नहीं बल्कि खरीदना एक कला माना जाता है। इस मामले में मुझे हमेशा परिवार में फिसड्डी माना जाता है, पहले पिताजी कहते थे कि"-तुझे कभी सब्जी खरीदने के अकल नहीं आयेगी। "और अब यही ताने हमारी श्रीमती देतीं है कि आपको तो कभी सब्जी लेना नहीं आयेगी ।

रविवार को सत्संग के बाद हम दोनों एक सप्ताह की सब्जी खरीने मंडी जाते है। मैं स्कूटर बाहर खड़ा कर किराने का सामान खरीदने बाजार चला जाता हूँ हमारी श्रीमती सब्जी वालों से झिकझिक कर अपनी खरीद कर आती हैं और मैं बाजार से लौटता हू फिर दौनों घर आते हैं। वह इन सब्जी वालों की ख़ूब शिक़ायत करती हैं-हालांकि कुछ सब्जी वालों को वह ईमानदार भी मानती है और जो सब्जी उनसे मिलती है उसे खरीदकर ही दूसरी सब्जी उन लोगों से खरीद्ती हैं जिन पर उनका यकीन कम है। इस क्रम में एक वाक़या मुझे याद है जो सब्जी व्यापार के खेरीज विक्रीताओं के लिए एक सबक है। हुआ यह कि एक बार नाप्तोल वालों ने रविवार को मंडी के बाहर अपना शिविर लगाया , उस दिन सभी सब्जी वालों ने दाम बड़ा दिया और तर्क दिया कि आज हम पूरी तरह से सही तौल दे रहे है क्योंकि बाहर नाप्तोल वाले बैठे हैं कहीं फंस न जाये इसीलिये दाम कम नहीं करेंगे और न कम तौलेंगे -अगर कहें कि आज कम तौलने का अवसर नहीं है अत: अपने पूरे दाम लेंगे। उस समय हमारी श्रीमतीजी की टिप्पणी थी कि काश यह नापतौल वाले हर रविवार को आयें ताकी मैं इस झिकझिक से बच सकूं। कालोनी में आने वाले ठेले वालों से वह एकदम नाखुश रहती है और कहती हैं कि नाप में कम भाव में ज्यादा केमामले में तो वह मंडी वालों से भी आगे हैं -हालांकि उनका मानना है सब ऐसे नहीं है पर जो लोग सही हैं उनके लिए भी कम मुसीबत नहीं है लोग उनके एकदम उचित दाम और सही नापतौल का सम्मान नहीं करते।

मैं अपने लिए फल लाता हूँ तो वह उनमें उनके खराब, कच्चा और वजन में कम होने की बात जरूर करती हैं और दाम के बारे में तो यही कहती हैं कि महंगा है और वैसे भी तुम कहाँ कम करने के लिए कहते हो।मॉल के मामले में भी उनका कहना है वहां सब्जियाँ रखी हुयी मिलती है। मतलब वह अभी भी वह उसी ढंग से सब्जी खरीदने के लिए तैयार है जैसे अभी तक कर रहीं थीं। जबकि मैं सोच रहा था कि अब सब्जी खरीने में किसी कला की जरूरात नहीं पडेगी। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है शोर ज्यादा है और तथ्य कम है कि कंपनियों के कारोबार से सब्जी बेचने वाले बेरोजगार हो जायेंगे। अभी बाज़ार बहुत बड़ा है और परंपरागत उपभोक्ता भी बहुत हैंजो शायद इन उंचे शोरूम की तरफ बरसों तक मुहँ उठाकर भी न देखें । हाँ , वह उपभोक्ता उनके पास जाएगा जो सब्जी खरीदने की कला में दक्ष नहीं है-हालांकि उनमें भी बहुत से लोग वहाँ नहीं जाएंगे

May 13, 2007

मौसमविदों से पूछकर खेलेंगे क्रिकेट

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भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अधिकारीयों ने तय किया है कि इस उपमहाद्वीप में में क्रिकेट मैचों के आयोजन के लिए मौसम विभाग की मदद लेगा ताकी मैचों को वर्षा और गर्मी के प्रकोप से बचाया जा सके। अभी बंगलादेश में भारतीय खिलाड़ी भारी गर्मी में खेल रहे हैं और मौसमविदों की भविष्यवाणी है टेस्ट मैचों के दौरान ६० से ८० प्रतिशत तक वर्षा की संभावना है। मेरा मानना है कि यह देर से लिया गया फैसला है और शायद लिया भी इसीलिये गया है क्योंकि उसके अध्यक्ष भारत के कृषी मंत्री है और मौसम के मामले में विशेष रूचि लेते हैं।मुझे याद है जब भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव ख़त्म करने की दृष्टि से पहली क्रिकेट श्रंखला आयोजित की गयी थी, उसमें लाहौर और मुल्तान में खेले गये टेस्ट मैचों में तापमान भारत में उत्तरीय इलाकों जितना ही था और एकदम गरम था। मुझे उस समय भारत और पकिस्तान के खिलाडियों पर तरस आ रहा था, मैंने अपने एक मित्र के सामने टिप्पणी की थी कि -"यार, देखो इन बिचारों को कितनी गर्मी में खेल रहे हैं , हम लोग खेलना तो दूर इतने तापमान में बाहर निकलने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

"तब वह मुझसे बोला था-" अरे यार, उन्हें तो लाखो और करोड़ों रूपये मिलते हैं , और रूपये में वह ताकत है कि गर्मी में ठंडी और ठंडी में गर्मी अपने आप पैदा हो जाती है। "

उसकी बात मैं मान लेता पर दर्शकदीर्घा में पचास लोग भी नहीं थे जो इस बात का प्रमाण था कि भीषण गरमी में पैसे की ठंडक में खिलाड़ी खेल जाये पर दर्शक कभी नहीं आने वाला। स्टेडियम में जाकर देखना तो दूर घर पर कूलर में बैठकर देखना भी तकलीफ देह हो जाता है , देखते देखते नींद आने लगती है । पूरे उपमहाद्वीप में एक जैसा मौसम होता है इसीलिये यह नहीं कहा जा सकता कि केवल भारतीय खिलाडियों या दर्शकों को ही इससे तकलीफ होती है। बंगलादेश के खिलाडियों और दर्शकों के लिए भी यही हालत होगी , पर भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड को अब इसीलिये भी ध्यान आया क्योंकि भारत में क्रिकेट के लिए लोगों में आकर्षण कम हो रहा है और इससे उनकी विरक्ति आर्थिक रुप से उसके लिए और नुकसानदेह होने वाली है। इसकी वजह से उसके आर्थिक स्त्रोत का जल स्तर वैसे ही नीचे जा रहा है और गर्मी उसे बिल्कुल सुखा डालेगी । भूमि का जल स्तर तो वर्षा के साथ बढने लगता है पर भारतीय क्रिकेट के लिए धन का स्तर अब चार साल अगले विश्व कप तक तो बढने वाला नहीं है और गर्मी का यही हाल रहा तो एकदम सूख भी सकते हैं ।
कुछ इस गर्मी के बारे में भी कहे बिना मेरी बात पूरी नहीं होगी। पूरे विश्व में तापमान बढ रहा है और यह मौसम विदों के लिए चिन्ता का विषय है। पिछले एक दशक से गर्मी १२ में से ११ महीने पड़ने लगी है। इस वर्ष मैंने शायद ही १५ दिन से अधिक हाफ स्वेटर पहना होगा। बाकी दिन तो मैं सुबह स्कूटर में उसे डाल कर ले जाता ताकी कहीं आसपास बर्फबारी की वजह से ठंड न बढ जाये, और अगर ऐसा हो तो स्वेटर पहनकर अपना बचाव किया जा सके। मैं पहले तेरीकात की शर्ट पहनता था पर बढती गर्मी ने मुझे इतना तंग किया कि अब होजरी की बनी बनाई टीशर्ट पहनने लगा हूँ और उससे आराम भी मिलता है और तनाव कम होता है। मुझे टीशर्ट पहनते हुए छ: वर्ष हो गये हैं और साल में दस महीने वही पहनता हूँ । जब से टीशर्ट पहनना शुरू की है तब से तैरीकात की कोई शर्ट नहीं सिल्वाई जो रखी हैं वही नयी लगती हैं। उन्हें सर्दी में ही पहनता हूँ।

क्रिकेट तो वैसे भी सर्दी का खेल है और उस पर इस महाद्वीप की दो बड़ी टीमें खस्ता हाल हैं और लोगों का अब इसके प्रति आकर्षण कम होता जा रहा है ऐसे में यह गर्मी उसके लिए संकट ही पैदा करने वाली है। क्रिकेट से जुडे धंधों के भी स्त्रोत अब सूखना शुरू हो गये हैं। इस समय देश के कई बडे शहर पाने के संकट से गुजर रहे हैं किसे फुर्सत है कि बंगलादेश पर भारत की जीत पर जश्न मनाए? आदमी पहले अपने लिए पाने की तो जुगाड़ कर ले, शायद यही वजह है कि क्रिकेट के लोग अब अपने कार्यक्रम मौसमविदों से पूछकर बनाने की सोच रहे हैं ।

May 11, 2007

आध्यात्म यानी आत्मसाक्षात्कार का साधन

हम जब भी कुछ विचार करते हैं तो उसका केंद्र इस संसार में मौजूद तत्व ही होते हैं जो हमें दिखाई देते हैं जिनका मूल स्वभाव ही नश्वर है। परमात्मा से बिछडे आत्मा तत्व की तरफ हम देखते तक नहीं जो हमारी देह को धारण किये हुए हां और जो अविनाशी भी है। हम देख-और सुख के मायावी जाल में इस तरह फंसे हैं कि लगता है बस यह सांसरिक तत्व ही सत्य है और केवल उसमें ही फंसकर अपना जीवन गुजार देते हैं , और उस आत्मा से कभी नहीं जुड़ते जो सदैव हमारी और इस भाव से ताकता रहता है कि हम उससे संपर्क करेंगे। पंच तत्वों से बनी इस देह में रहने वाली तीन प्रक्रतियां अहंता, ममता और वासना सदैव हमारी बुध्दी और मन को इस तरह फंसाये रहती हैं कि हम अपने आत्मा पर जीवन भर दृष्टि नहीं कर पाते और ढ़ेर सारी तकलीफें झेलते हैं। सरलता से जिस जीवन को जिया जा सकता है उसमें हम ढ़ेर सारे तकलीफें स्वयं बुला लेता हैं। आप सोच रहे होंगे कि कोई वृध्द व्यक्ति अपनी रोनी रो रहा है। ऎसी बात नहीं है न मैं वृद्ध हूँ न नवयुवक । तनाव के पल मेरे लिए भी आते हैं पर उस समय मैं अपने इष्ट का स्मरण करता हूँ तब हस पड़ता हूँ, लगता है कि इसे मैं अपना दु:ख क्यों समझ रहा हूँ यह तो देह के साथ लगा ही रहेगा। मैं सभी प्रकार के सांसरिक कार्य करते हुए भी उनमें पाने भाव को लिप्त नहीं करता , यह राज केवल मैं ही जानता हूँ पर मेरे निकट के लोग इसका आभास तक नहीं कर पाते, वह सोचते हैं कि मैं हंस रहा हूँ पर मैं केवल इस दुनियां में लोगों का पाने देह पर अभिमान को देखकर हंसता हूँ। मैं अगर किसी का काम करता हूँ तो वह खुश होकर मुझे धन्यवाद देता है पर मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता क्योंकि जो काम मैं करता हूँ उसका करतार स्वयं को नहीं मानता। बचपन से लेकर आज तक भगवान् की भक्ती करते हुए मैं मन मैं कोई कामना नहीं रखता क्योंकि मेरा मनाना है कि जो हुआ वह तो होना ही था और जो रहा है उस पर मेरा बस नहीं है जो होना है वह अटल है, फिर उस अपने इष्ट से मैं क्या माँगूं जिसने इस देह में सारे कार्य करने की शक्ति दीं है । और हम कोई भी सांसारिक कार्य उससे संपन्न कर सकते है तो फिर हम उस परमपिता के सामने क्यों हाथ फैलाते हैं ? जी समय हम उसे अपने ह्रदय में धारण कराने का प्रयास करते हैं तब हमारे अन्दर मौजूद अहंता,ममता और वासना तीनों मिलाकर हमें कुछ मांगने के लिए प्रेरित करती हैं और हम भगवन से वह माँगते है, जबकि उस समय कुछ न सोचे तो वह हमारे अन्दर स्थापित होकर हमें परमानंद की अनुभूति करायेगा पर उस समय भे सांसरिक बात सोचकर हम वह कीमती समय नष्ट कर देते हैं। शेष आगे

May 6, 2007

बारात का एक दिन, शादी की एक रात-कविता

एक दिन की बारात
शादी की एक रात
आदमी अपनीसारी जिन्दगी की
कमाई दाव पर लगाता है
दूसरों को खुश कर अपनी
ख़ुशी का सपना सजाता है
पर जब आता है वह दिन
गहराती है रात
तब बदहाल आदमी भूल जाता है
अपनीसारी ख़ुशी
झूठी शान में अपने को थकाता है
सब बाराती चले जाने पर
खाली पंडाल के नीचे खङा आदमी
खर्च और भेंट का हिसाब करते हुए
झूठी प्लेटों के बीच खडे होकर
इधर-उधर देखता झुंझलाता
बारात का वह दिन
शादी कि वह रात
अपने बेटे की शादी पर
सुखद कल्पनाएं जो उसने की थी
उन्हें वह ढूँढता रह जाता
और फिर वह अब बेटी की
शादी में जुट जाता
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शादी एक खूबसूरत ख्वाब है
जो देखता है हर कोई
पहले अपने शादी का जश्न मनाने के बाद
अपनी औलाद होने पर उसकी शादी का
ख्वाब सजोने लगता है हर कोई
बेटा होने पर सोचता ऎसी बहु
घर में लाऊँगा जो मेरे पाँव दबाए
भोजन और पानी दे बैठे-बिठाए
हर शख्स मेरी किस्मत पर चिढ जाये
बेटी होने पर यह ख्वाब सजाता है
ऐसे भर भेजूंगा जहां राज करेगी
घर के नौकर करेंगे सेवा
मेरी बेटी खाएगी मेवा
लोग मेरी किस्मत पर बौख्लायेंगे
वाह रे इन्सान कैसी है तेरी सोच
बरात का एक दिन
शादी की बस एक रात
पूरी जिन्दगी दाव पर लगाता है
ख्वाब हकीकत नहीं होते
रोते हुए ही जिन्दगी गुजारता है
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May 5, 2007

माया पर आख़िर सत्य की विजय होगी

हालांकि मुझे एक बात की तसल्ली है कि इसमें जो संत फंसे हैं वह पहले भी विवादों में फंस चुके हैं, और जो इसे देश के लोक संत हैं उनका नाम नहीं है। कुछ लोग इसे अपने धर्म पर आक्षेप समझ रहे हैं और तमाम तरह के आरोप चैनल पर लगा रहे हैं जबकि मैं मानता हूँ कि यह कोई तरीका नहीं है , इस देश में हजारों संत हैं और उनमें भी कई ऐसे तपस्वी हैं जो समाज के सामने तक नहीं आते । भारत में संत समाज को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है इसीलिये कुछ धन्धेबाज भी इसमें घुस जाते हैं जिनका उद्देश्य केवल अपने लिए संपत्ति जोड़ना होता है ऐसे लोगों के पर्दाफाश से विचलित नहीं होना चाहिऐ । हमें तो ऐसे संतों पर गर्व करना चाहिए जो देश में ही नहीं विदेशों भी भक्तो को भक्ती और विश्वास का रस चखाते हैं । जिन लोगों की पोल खुली है उनका प्रचार तो होगा पर ;सब जानते हैं कि बुराई को जितनी जल्दी प्रचार मिलता है मिलती है उतनी जल्दी थमता है । अच्छाई को देर से सम्मान मिलता है पर वह स्थाई होता। एक बात और है कि धर्म की रक्षा केवल सत्य से ही हो सकती है इसीलिये धर्म के लिए असत्य को स्वीकारना गलत होगा। हमारा धर्म का हिस्सा संत परंपरा है पर वह कोई पांच-सात तथाकथित संतों और बाबाओं की दम पर नहीं टिका है।

बाबाओं पर माया की छाया:भक्त विचलित न हौं

एक समाचार चैनल ने सात बाबाओं को काले धन पर कानूनी रुप से सफेदी चढाने के लिए कमीशन की माँग करे हुए दिखाया गया है। यह एक स्टिंग आपरेशन है और जिसमें बाबाओ का रवैया एकदम उस आम आदमी की तरह है जो दिन रात माया के चक्कर में रहता है और जब उसे मानसिक रुप से शांति की जरूरत होती है वह इन बाबाओं की शरण में जाता है। मैं किसी भी बाबा का शिष्य नहीं हूँ और दूसरा यह भी कि एकदम धर्मभीरू हूँ मेरी अपने धर्म ग्रंथों में गहरी आस्था हैं क्योंकि मैं मानता हूँ कि उनमें ज्ञान, विज्ञान, भक्ती और मन में जीवन के प्रति रूचि उत्पन्न करने वाली पठनीय सामग्री है। इन बाबाओं के प्रवचन भी मैं सुनता हूँ और आगे भी सुनूँगा-क्योंकि मैं इनके बिना रह नही सकता। वैसे भी मेरी दिलचस्पी कथा के सार और उसका आनन्द उठाने से है कौन कर रहा है इसमें मेरी कोई रूचि नहीं होती। एक व्यक्ति के रुप में और एक भक्त के रुप में विचार स्वत: ही प्रथक प्रथक रुप से दिमाग में विद्यमान रहते है इन बाबाओं को जिस तरह स्टिंग आपरेशन में फंसाया गया है उससे मुझे आश्चर्य भी हुआ हंसी भी आयी। यकीनन इस तरह कोई ज्ञानी नहीं फंस सकता है और जो फंसे हैं वह ज्ञान का व्यापार करने वाले है पर उसका उपयोग अपने लिए नहीं करते। जिस तरह हलवाई मिठाई बना कर बेचता है पर स्वयं नहीं खाता वैसे ही कुछ हाल इन बाबाओं का हुआ है। हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों से ज्ञान निकालकर भक्तों के सामने प्रस्तुत करते हैं पर स्वयं धारण नहीं करते ।
इसके बावजूद मुझे चैनल द्वारा जिस तरह इसे प्रसारित किया जा रहा है उस पर कुछ आपत्ति है। यही चैनल वाले नेताओं, अभिनेताओं और क्रिकेट खिलाड़ियों के निजी आचरण पर यह कहते हुए टिप्पणी से बचते है कि उनकी इन बातों का राजनीती, अभिनय और खेल से कोई संबंध नहीं है । क्रिकेट खिलाड़ियों को रेम्प पर नाचते हुए दिखाते हुए चैनल वाले लच्छेदार भाषा का उपयोग करने में जरा भी झिझकते नहीं है। क्रिकेट खिलाड़ियों के विज्ञापन करने पर भी चैनल वाले कोई आपत्ति नही करते, पैसा कमाना उनका व्यक्तिगत अधिकार है और इससे उनके खेल पर कोई फर्क नहीं पडा। जबकि कुछ लोग मानते है कि उस पैसे से इन खिलाड़ियों की मानसिकता पर असर पड़ता है, सभी खिलाडी उस पैसे का कहीं और जगह व्यापार और विनियोजन में लगाते हैं जिनका ध्यान उस समय भी रहता होगा जब वह खेलते हैं। बाबाओं को परदे पर दिखाते हुए चैनल वाले जब "भक्तों के ठगा जा रहा है" , "भक्त हतप्रभ रह गये हैं " और "धर्म के नाम पर व्यापार " जैसे नारे लगा रहे हैं। कहीं भीड़ एकत्रित कर बाबाओं के खिलाफ विष वमन कराया जा रहा है, और जाने-अनजाने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे समूचा संत समाज ही भ्रष्ट हो। कभी कहते हैं हैं कि "अभी तक इन बाबाओं को पकडा नहीं गया " वगैरह वगैरह । इन चैनल वालों ने अपनी टेलीफोन लायिनें दर्शकों के लिए खोल रखी है पर नारद पर अपने भी सब ब्लोग खुले पडे हैं और इस समय फ्लॉप हालत में हैं तो सोचा अपनी बात वहीं रख देते हैं-इतनी लंबी और सार्थक बात चैनल वाले तो रखने से रहे, उनके अनुकूल नहीं है तो बिल्कुल नहीं।
मैं इन चैनल वालों से कहना चाहता हूँ कि अभी तो तुम्हारी ख़बर की सत्यता की पुष्टि होना बाकी है और दूसरा यह कि अनावश्यक रुप से उन बाबाओं के ज्ञान और भक्तो को बीच में मत लाओ , उनकी निजी गलतियों-वह भी जिनका प्रमाणीकरण होना शेष है -से भक्तों का क्या लेना देना । जो इन संतों से आर्थिक लाभ लेते हैं वह भक्त अभी भी उनके पास रहेगा और जो कथा सुनकर दूर से ही चला जाता है उसे इनकी निजी बातों से कोई लेनादेना नहीं होता- उनके विश्वास को चुनौती देना बेकार है। इन भक्तों के पास इनके प्रवचन सुनने के आलावा कोई चारा नहीं है । इस देश में स्वतंत्रता के बाद जो व्यवस्था बनी है उसने देश में तमाम तरह की विकृतियाँ फैली हैं और उससे आदमी में मानसिक तनाव रहने लगा है और इन बाबाओं के सत्संग से उन्हें शांति मिलती है। सत्संग एक ऐसा टानिक है इस मानसिक तनाव को दूर कराने का काम करता है। चैनल का काम है खबर देना उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है पर इस खेल में धरम और ज्ञान को नहीं लाना चाहिए । जहां तक दो नंबर के धंधों का सवाल है तो इसके लिए कानून अपना काम करता है और अदालतें भी अपनी भुमिका निभाने में सक्षम हैं।
अब मेरी बात भक्तों से ! अपने धर्मग्रंथों में जो ज्ञान, विज्ञान और भक्ति से परिपूर्ण जो रस है उसका इस मायावी दुनिया से कोई संबंध नहीं है, पर माया ही उस रसस्वादन कराने वाली शक्ति है। जब हम माया के सतत संपर्क से उकता जाते हैं तब ज्ञान और भक्ती का रस ही हमें एक नयी शक्ति प्रदान करता है। जब हम उस पर डूब जाते हैं तो माया ही है जो फिर हम हमला करती है और हम उसके आगे लाचार हो जाते हैं । जिस तरह हम भक्ती और माया के अंतर्द्वंद को समझते हुए जीते हैं उसकी मिसाल कहीं और नही मिलती । भारत में संतों और बाबाओं का एक बहुत बड़ा समाज है। कई संत ऐसे हैं जो सब कुछ त्याग कर अपनी तपस्या में तल्लीन रहते है तो कुछ ऐसे भी है जो निर्लिप्त भाव से माया के साथ रहते हुए उसे समाज में लगाते है पर वे कोई ऐसा काम नहीं करते जो अनैतिक हो । जो काम इन बाबा और संतों ने किया है वह एकदम अनैतिक पर इससे अपने देश के समूचे संत समाज को संदेहास्पद मानना गलत होगा, क्योंकि नैतिकता और सत्य के रास्ते पर चल रहे संतों के त्याग, तपस्या और विश्वास पर ही हमारा समाज टिका है । जो हुआ है उसके हमारे दर्शन और आध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है । जो संत स्टिंग आपरेशन में फंसे हैं उनके भक्तों को भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है -इन संतों के अनुसार भी भक्त की परीक्षा माया द्वारा ली जाती है। आप यह मान सकते हो कि यह माया की लीला है और इसमें अपने भक्ती भाव से विचलित होने के जरूरत नहीं है।

May 3, 2007

लिखना है तो लिखना है

मैं क्यों लिखता हूँ , मुझे नहीं मालुम ! अब सवाल भी अपने से है जवाब भी स्वयं ही देना है। लेखक होने के कारण भावुक हूँ और यह भावुकता इसके मुझ को मजबूर करती है । यह जरूर नहीं है कि हर भावुक व्यक्ति लेखक हो पर लेखक भावुक होता हो इसमें संशय नहीं है , यह अलग बात है कि अपनी संवेदनशीलता को अपने शब्दों में कितना पिरो सकता है यह वही जानता है । बात लिखने की चल रही है और मैं अपने लिखने का उद्देश्य तलाशना चाहता हूँ। मैंने लिखना अपने अकेलेपन में स्वयं को तलाशने के लिए किया था-और यह सिलसिला शुरू हुआ तो यह भाव बना कि लोग इसे पढ़ें । देश के कयी अखबारों में छपने के साथ मेरी लिखने की भूख भी बढती गयी और फिर धीरे धीरे विरक्ति होती गयी और फिर टीवी पर क्रिकेट देखने की आदत ने अपना लिखा बाहर भेजना बंद किया और फिर लिखना भी कम हो गया । मैंने एक बात अनुभव की जब मैं नहीं लिखता तो मेरा मन परेशान हो उठता था , और जब लिखता तो मेरे अन्दर एक खुशनुमा अहसास होता। लिखते समय मैं एक बात का ध्यान रखता हूँ कि मैं अपना तनाव मन की खिड़की से बाहर फैंक रहा हूँ पर वह मेरी रचना के पास से निकल रहे पाठक पर नहीं गिरना चाहिए। कभी भी मैं नकारात्मक विचारधारा का समर्थक नहीं रहा, और किसी पर अपने लिखने से व्यक्तिगत आक्षेपों से दूर ही रहता हूँ । किसी एक घटना पर लिखने में मजा नहीं आता और न ही उसमें कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है। एक समय पर एक कोई घटना जब होती है तो हम समझते हीं कि वह केवल वहीं हुयी है जबकि वैसी घटना विगत में हो चुकी होती है और भविष्य में भी होने की तैयारी होती है -बस पात्रों के नाम, स्थान और समय बदलता रहता है।जब मेरे मन में हलचल होती है तो उस पर नियन्त्रण करने के लिए मैं कलम उठा लेता हूँ-अब आप कह सकते हैं कि कंप्युटर पर आ जाता हूँ। मेरे मन की पीडा लिखने को प्रेरित करती है। पीड़ा के उदगम और विसर्जन के बीच की प्रक्रिया के बीच चिंतन और मनन चलता रहता है।कम्पूटर की भाषा में कहें तो प्रोसेस चलता रहता है। मेरे प्रयास रहता है मी पीडा के विसर्जन से दूसरी जगह उदगम नहीं होना चाहिऐ। जिन लोगों में अपनी गलती से सीखने की आदत होती है वह कभी निराश नहीं होते -उन्हें अपने हादसों से ही ज्ञान प्राप्त करने का अभ्यास हो जाता है। जो लोग अपनी नाकामियों की गलती दूसरों पर डालते हैं और हादसों से जो बिखरने लगते हैं वह कभी लिख नहीं सकते और न ही बोल पाते हैं और उनके पास घुटने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। एक लेखक के रुप ने मुझे कभी इस स्थिति में नहीं आने दिया । लोग विरोधाभासों में जीते है पर उनेह इसकी अनुभूति नहीं होती । मैं भी कयी बार अपने अन्दर इन विरोधाभासों को देखता हूँ और उन पर दृष्टि रखता हूँ । विरोधाभास का मतलब एक घटना पर एक तर्क और वैसी घटना दूसरी जगह होने पर दूसरा तर्क देना। अपने साथ कोई बात होने पर एक तर्क वैसी ही बात दुसरे के साथ होने पर दूसरा तर्क देना एक मंवील स्वभाव का हिस्सा है। कई बार ऎसी स्थिति आने पर मैं ऐसा करता हूँ पर कम से कम मैं अपने अन्दर इस बोध के साथ रहता हूँ पर लोग अपने को भुलावे में डालने में सफल हो जाते हैं। मैं समय की बलिहारी मान लेता हूँफिर मैं क्यों लिखता हूँ ? इसका उत्तर मैंने लिखते लिखते ढूँढ लिया । हमारी सारी इन्द्रियां अपने मूल स्वरूप के अनुसार काम करती हैं-जैसे आँखों का काम है देखना वह देखती हैं ,कानों का काम है सुनना वह सुनते हैं, नाक कान है सूंघना वह सून्घती हैं , मस्तिष्क का काम है सोचना वह सोचता है और मुख का काम है भोजन ग्रहण करना और शब्दों के उदगम स्थल के रुप में अपनी भुमिका का निर्वहन करना। लिखना किसी भी इन्द्रिय का मौलिक काम नहीं है और वह केवल स्व प्रेरणा से ही संभव है । स्व प्रेरणा से कोई भी कार्य करने में जो अनुभूति है उसे लेखन के द्वारा ही महसूस किया जा सकता है । मेरा लिखना निरुद्देश्य है पर निष्फल नहीं है क्योंकि इससे न केवल मुझे आनंद मिलता है वरन अनेक अच्छे मित्र इसी लेखन के जरिये मिले हैं और सम्मान भी मिला है।इण्टरनेट पर ब्लोग बनाने का फैसला मेरी गलतियों का परिणाम से हे हुआ। दरअसल मैं कुछ ढूँढ रहा था और मैं सोच रहा था कि मैं वही कर रहा हूँ। पता लगा कि एक ब्लोग बन गया है , समझ में कुछ आया नहीं अचानक नारद पर बने ब्लोग की याद आयी । नारद को भेजी गयी एक रचना अभी एक रचना एक वेब मेगजीन अभिव्यक्ति में छपी है जो इस बात का प्रमाण है मेरा उस समय ज्ञान कितना था। मैं आज भी नारद पर जाने के लिए पहले अभिव्यक्ति का दरवाजा खट ख्ताता हूँ। कर रहा था नारद से संपर्क और सोचता था कि पत्रिका से कर रहा हूँ । अपनी गलतियों और हादसों से बचने के लिए लिखना भी एक कारण है पर इन्टरनेट पर उनसे भी पीछा नहीं छूटता । सोचा गलती से ब्लोग बना और हादसे से नारद में प्रव्वेश हुआ , तो लिखो कोई पूछे तो पूछता रहे कि तुम लिखे क्यों हो?

May 1, 2007

मजदूर दिवस:श्री गीता में है समाजवाद का संदेश

"जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुध्द सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।"
श्री मद्भागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया गया है क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्री मद्भाग्वत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकी समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्त्शास्त्री माने जाते है जिन के विचारों पर वामपंथी विचारधारा का निर्माण हुआ और जिनका नारा था "दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ"। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को ल्गंने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिध्द होगा। भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो वामपंथी विचारधारा का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्यान को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया।
मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझे में नहीं आता था पर भक्ती भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ शाहुकारों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।