Dec 29, 2012

शोक, बहस और विज्ञापन-लघु हिन्दी हास्य व्यंग्य (shok, bahas aur vigyapan-laghu hindi hasya vyangya,short hindi satire article

                     दो प्रचार प्रबंधक एक बार में सोमरस का उपभोग करने के लिये   गये। बैरा उनके कहे अनुसार सामान लाता और वह उसे उदरस्थ करने के बाद इशारा करके पास दोबारा बुलाते तब फिर आता। दोनों आपस में अपने व्यवसाय से संबंधित बातचीत करते रहे।  एक प्रचार प्रबंधक ने दूसरे से कहा‘-‘‘यार, मेरे चैनल का मालिक विज्ञापनों का भूखा है।  कहता है कि तुम समाचार अधिक चलाते हो विज्ञापन कम दिखाते हो।’’
      दूसरा बोला-‘‘यार, मेरे चैनल पर तो समाचारों का सूखा है।  इतने विज्ञापन आते हैं कि समझ में नहीं आता कि समाचार चलायें कि नहीं। जिन मुद्दों पर पांच मिनट की बहस होती है  हम पच्चपन मिनट के विज्ञापन चलाते हैं।  हालांकि इस समय मुसीबत यह है कि हर रोज कोई मुद्दा मिलता नहीं है।’’
      पहला बोला-‘‘अरे, इसकी चिंता क्यों करते हो? हम और तुम मिलकर कोई कार्यक्रम बनाते हैं। राई को पर्वत और रस्सी को सांप बना लेंगे। अरे दर्शक जायेगा कहां? मेरे चैनल  या तुम्हारे चैनल पर जाने अलावा उसके पास कोई चारा नहीं है।
   इतने में बैरा उनके आदेश के अनुसार सामान ले आया।  उसकी आंखों में आंसु थे। यह देखकर पहले प्रचार प्रबंधक ने उससे पूछा कि ‘‘क्या बात है? रो क्यों रहे हो? जल्दी बताओ कहीं हमारे लिये जोरदार खबर तो नहीं है जिससे हमारे विज्ञापन हिट हो जाये।’’
            बैरा बोला-‘‘नहीं साहब, यह शोक वाली खबर है।  वह मर गयी।’’
           दोनों प्रबंधक उछलकर खड़े हुए पहला बोला-‘‘अच्छा! यार तुम यह पैसा रख लो। सामान वापस ले जाओ। हम अपने काम पर जा रहे है। आज समाचार और बहसों के लिये ऐसी सामग्री मिल गयी जिसमे हमारे ढेर सारे विज्ञापन चल जायेंगे।’’
           दूसरा बोला-‘‘यार, पर शोक और उसकी बहस में विज्ञापन! देखना लोग बुरा न मान जायें।’’
           पहला बोला-‘‘नहीं यार, लोग आंसु बहायेंगे। विज्ञापन देखकर उनको राहत मिलेगी। हम फिर उनको रुलायेंगे। देखा नहीं उसके  बस से लेकर उसके अस्पताल रहने तक  हमने समाचार और बहस में कितने विज्ञापन चलाये।’’
            दूसरा बोला-‘‘पहले यह तो इससे पूछो मरी कौन है?’’
           पहले ने बैरे से पूछा-‘‘यह तो बताओ मरी कौन है?’’
          बैरा रोता रहा पर कुछ बोला नहीं। दूसरे ने कहा-‘‘यार, यह तो मौन है।’’
               पहला बोला-‘‘चलो यार, अपने विज्ञापन का काम देखो।  यह हमारा कौन है?’’
दोनों ही बाहर निकल पड़े। पहले ने एक विद्वान को मोबाइल से फोन किया और बोला-‘‘जनाब, आप जल्दी आईये।  अपने साथ अपनी मित्र मंडली भी लाना। सभी अच्छा बोलने वाले हों ताकि दर्शक अधिक से अधिक हमने चैनल पर बने रहें। हमारा विज्ञापन का समय निकल सके।’’
            दूसरे ने भी मोबाईल निकाला और अपने सहायक से बोला-‘‘सुनो, जल्दी से विज्ञापन की तैयारी कर लो। एक खबर है जिस पर लंबी बहस हो सकती है। इसमें अपनी आय का लक्ष्य पूरा करने में मदद मिलेगी।’’
दोनों अपने लक्ष्यों की तरफ चल दिये। उन्होंने यह जानने का प्रयास भी नहीं किया कि ‘मरी कौन है’। इससे उनका मतलब भी नहीं था।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
poet and writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Dec 22, 2012

ज़माना अंधकार से बाहर न आया-हिन्दी कविता (Zamana andhkar se bahar n aaya-hindi kavita)

किस पर भरोसा करें
यहां हर कदम पर धोखा खाया,
हुकूमत पर क्या इल्जाम डालें
जनता के  हाथ पांव के साथ
दिमागी सोच को भी
पुरानी जंजीरों में बंधा पाया।
कहें दीपक बापू
हाथ में तख्तियां और मशाल
लेकर  बहुत लोग चले जुलूसों में
नारों से गूंजा बहुत बार आकाश
फिर भी ज़माना अंधकार से बाहर न आया,
शिकारी भीड़ में भेड़ों के साथ शामिल रहे
अकेले में भेड़िये बन गये
हालातों में बदलने की बात
सुनते सुनते पक गये कान
अच्छे समय की आस बनी रही
अलबत्ता ईमानदारी और यकीन को
हर दिन गर्त में जाते पाया।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
poet and writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh


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Nov 27, 2012

मनुस्मृति-भोजन करने के भी नियम हो सकते हैं (manu smriti-bhojan karne Bhi niyam hote hain)

                         भोजन करने के भी नियम होते हैं।  यह नहीं कि पेट भरना है तो चाहे जब खा  लिया और चाहे जब भूखे रह लिये। स्वास्थ्य वैज्ञानिक आजकल खानपान की बदलती प्रवृत्तियों को स्वास्थ्य के लिये खतरनाक बता रहे है।  आजकल आधुनिक युवा वर्ग बाज़ार में बने भोज्य पदार्थों के साथ ही ठंडे पेय भी उपयोग कर रहा है जिसकी वजह से बड़ी आयु में होने वाले विकार अब उनमें भी दिखाई देने लगे है।  जहां पहले युवा वर्ग को देखकर यह माना जाता था कि वह एक बेहतर स्वास्थ्य का स्वामी है और चाहे जो काम करना चाहे कर सकता है।  मौसम या बीमारी के आक्रमण से उनकी देह के लिये कम खतरा है पर अब यह सोच खत्म हो रही है।  अपच्य भोज्य पदार्थों और ठंडे पेयो के साथ ही  रसायनयुक्त तंबाकू की पुड़ियाओं का सेवन युवाओं के शरीर में ऐसे विकारों को पैदा कर रहा है जो साठ या सत्तर वर्ष की आयु में होते हैं।
मनु स्मृति में कहा गया है कि
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न भुञ्जीतोद्धतस्नेहं नातिसौहित्यमाचरेत्।
नातिप्रगे नातिसायं न सत्यं प्रतराशितः।।
         हिन्दी में भावार्थ-जिन पदार्थों से चिकनाई निकाली गयी हो उनका सेवन करना ठीक नहीं है। दिन में कई बार पेट भरकर, बहुत सवेरे अथवा बहुत शाम हो जाने पर भोजन नहीं करना चाहिए। प्रातःकाल अगर भरपेट भोजन कर लिया तो फिर शाम को नहीं करना चाहिए।
न कुर्वीत वृथा चेष्टा न वार्यञ्जलिना पिवेत्
नोत्सङ्गे भक्षवेद् भक्ष्यान्नं जातु स्वात्कुतूहली।।
               हिन्दी में भावार्थ-जिस कार्य को करने से कोई लाभ न हो उसे करना व्यर्थ है। अंजलि से पानी नहीं पीना चाहिए और गोद में रखकर भोजन नहीं करना चाहिए।
           हम देख रहे हैं कि समाज में एक तरह से बदहवासी का वातावरण बन गया है।  दुर्घटनाओं, हत्यायें तथा छोटी छोटी बातों पर बड़े फसाद होने पर युवा वर्ग के लोग ही सबसे ज्यादा शिकार हो रहे हैं। युवाओं की मृत्यु दर में वृद्धि का कोई आंकड़ा दर्ज नहीं हुआ है पर जिस तरह के समाचार नित आते हैं वह इसका संदेह पैदा करते हैं।  कहा जाता है कि जैसा खाया जाये अन्न वैसा होता है मन। युवाओं में भोजन की बदलती प्रवृत्ति उनमें बढ़ते तनाव का प्रमाण तो पेश कर ही रही है।  जिस तरह बच्चों की बीमारियों पर अनुसंधान किया जाता रहा है उसी तरह अलग से युवा वर्ग के तनावों और विकारों का भी शोध किया जाना चाहिये।
               स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे  भोजन का परंपरागत स्वरूप ही स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त है।  इस संबंध में श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि रस और चिकनाई युक्त, देर तक स्थिर रहने वाले तथा पाचक भोजन सात्विक मनुष्य को प्रिय होता है।  यह भी कहा गया है कि न तो मनुष्य को अधिक भोजन करना चाहिए न कम।  इसकी व्याख्या में हम यह भी मान सकते हैं कि ऐसा करने पर ही मनुष्य सात्विक रह सकता है। हम जब आजकल के दैहिक विकारों की तरफ देखते हैं तो पता लगता है कि चिकित्सक बीमारी से बचने के लिये चिकनाई रहित और हल्का भोजन करने की सलाह देते हैं।  तय बात है कि इससे मनुष्य की मनोदशा में सात्विकता की आशा करना कठिन लगता है।  हालांकि यह भी सच है कि इस तरह का भोजन करने पर शारीरिक श्रम अधिक कर उसको जलाना पड़ता है पर आजकल के रहन सहन में इसकी संभावना नहीं रहती। मगर यह सच है कि खानपान का मनुष्य जीवन से गहरा संबंध है और उसमें नियमों का पालन करना चाहिए।       

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
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Oct 28, 2012

बिडाल, बक और अज्ञानियों के हाथ में समाज सेवा न जाने दें-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन लेख

            आजकल हमारा पूरा देश ऐसे विरोधाभासों में फंसा है जिनसे उसका निकलना बिना अध्यात्मिक ज्ञान के कठिन ही नहीं  वरन् असंभव लगता है।  एक तरफ हमारे देश में धर्म की रक्षा के लिये अनेक संगठन बने हैं तो दूसरी तरफ तथाकथित ज्ञानियों की भीड़ समाज को धर्म के मार्ग पर लाने के लिये जूझती दिखती है।  न वक्ताओं का मन पवित्र है न श्रोताओं की रुचि उनके प्रवचनों में हैं।  धार्मिक कार्यक्रमों के नाम पर टाईम पास मनोरंजन के लिये सभी जगह भीड़ जुट जाती है मगर परिणाम शून्य ही रहता है।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण भ्रष्टाचार की समस्या को लें। सब मानते हैं कि भ्रष्टाचार देश से मिटना चाहिए मगर स्थिति यह है कि तमाम तरह के आंदोलनों के बावजूद इसमें रत्ती भर कमी नहीं आ रही है। आंदोलन करने वाले तमाम तरह के दावे करते हैं। उनको भारी भरकम राशि के रूप में चंदा भी मिल जाता है। बड़े बड़े भाषण सुनने को मिलते हैं।  स्थिति यह हो गयी है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के कर्ताधर्ताओं ने प्रचार माध्यमों में  महापुरुष के रूप में अपनी ख्याति बना ली है। इतना ही नहीं इनके अगुआ समाज में चेतना लाने का दावा भी करते हैं।  इसके बावजूद हम जब धरती की वास्तविकता पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि पर्दे और कागज पर बयान की जा रही हकीकत अलग है।  कुछ धार्मिक पुरुष भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध शब्दों को व्यक्त कर जनमानस में अपनी छवि बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं।  यह अलग बात है कि इनमें से अनेक लोगों ने फाइव स्टार होटल नुमा महल और आश्रम बना लिये हैं। तय बात है कि यह सब चंदे और दान से ही हो रहा है।  अब यह अलग बात है कि कहीं आमजन प्रत्यक्ष रूप से छोटी राशि का चंदा देता है तो कहीं  बड़ा धनपति प्रायोजन करता है।  किसी की नीयत पता नहीं की जा सकती है पर जब हम परिणाम देखते हैं तो यह साफ लगता है कि आमजनों के साथ छलावा हो रहा है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

न वार्यपि प्रचच्छेत्तु बैडालवतिके द्विजै।
न बकव्रततिके विप्रे नावेदाविवि धर्मवित्।।
         हिन्दी में भावार्थ-धार्मिक रूप धारणकर जो दूसरों को मूर्ख बनाने के साथ उनसे धन ऐंठते हैं। ऐसे लोग बाहर से देवता और अंदर से शैतान होते हैं उनको पानी तक नहीं पिलाना चाहिए।
त्रिष्वप्येतेषु दंत्तं  हि विधिनाऽप्यर्जितं धनम्।
दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च।।
             हिन्दी में भावार्थ-बिडाल (दूसरों को मूर्ख बनाकर लूटने वाले), बक (बाहर से साधु का वेश धारण करने वाले राक्षसीय वृत्ति वाले) तथा वेद ज्ञान से रहित लोगों को दान देने से आदमी पाप का भागी बनता है।
            यह कहना तो अनुचित होगा कि हमारे देश के सभी लोग मूर्ख हैं पर यह भी सत्य है कि बिडाल, बक और अध्यात्म के ज्ञान से शून्य लोग चालाकी से अपने लिये रोजीरोटी के लिये आमजन को भ्रमित कर रहे हैं।  समाज सेवा एक ऐसा पेशा बन गयी है जिससे अनेक लोग न केवल रोजीरोटी कमा रहे हैं वरन् प्रचार माध्यमों में विज्ञापन और पैसा देकर अपने महानतम होने का पाखंड रच रहे हैं। हम यह नहीं कहते कि आमजन किसी को भी चंदा या दान न दे पर इतनी अपेक्षा तो आम भारतीय से की ही जानी चाहिए कि वह उचित पात्र को अपने मेहनत की कमाई का अंश प्रदान कर अपने मन को तृप्त करे न कि अनुचित आदमी को देने के बाद जब उसकी वास्तविकता पता होने से अपने अंदर खीज को आने दे।  देश में एक तरफ अनेक तरह की समस्यायें हैं पर उनका निपटारा जनच्रेतना से हो सकता है। उसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने शरीर की नहीं वरन् मन की आंखें भी खोलकर रखें।  स्थितियों पर आध्यात्मिक दृष्टि से विचार कर उचित और अनुचित बात का निर्णय करें।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
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Sep 28, 2012

पेशेवर दलाल और ज़ख्म-हिंदी व्यंग्य कविता (peshewar dalal aur zakhma-hindi poem or kaivta )

हादसों पर रोते लोगों के आंसु
पौंछने का जिम्मा जिन लोगों ने लिया
वह हमदर्दी का सौदा करने लगे हैं,
दवा लाने के लिये घायलों से लेकर पैसा
अपनी जेब भर लगे हैं।
कहें दीपक बापू
चौराहे पर रोने का कोई फायदा नहीं
कदम कदम पर कराहते लोग
क्या दर्द बांटेंगे,
कुछ पेशेवर दरियादिल भी हैं
जो जख्म की जात छांटेंगे,
फिर भी उम्मीद नहीं
दरबारों से नहीं आती मदद,
दोस्त दुश्मन बांट लेते रसद,
सिंहासनों पर बैठे लोग केवल मतलब के सगे हैं।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश 
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश



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Sep 18, 2012

महंगाई और आम आदमी की सस्ती ज़िन्दगी-हिंदी व्यंग्य कविता (mahgai aur aam aadmi ki sasti zindagi-mahgai par hindi kavita)

महंगाई बस यूं ही
बढ़ती जायेगी
आम इंसान की तरक्की
हमेषा ख्वाब में नज़र आयेगी।
कहें दीपक बापू
हम तो ठहरे सदाबाहर आम आदमी
तकलीफें झेलने की आदत पुरानी
एक आती है दूसरी जाती है
माया की तरह बदलती है रूप अपना
डरते नहीं है
जानते हैं
मुसीबतों से निजात
इस जन्म में हमें नहीं  मिल पायेगी।
तसल्ली है
चीजों की बढ़ती कीमत से
आम आदमी की ज़िन्दगी
पहले से सस्ती होती जायेगी।
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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा "भारतदीप"
ग्वालियर, मध्यप्रदेश


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Sep 8, 2012

चूहे जब बादशाह बनते हैं-हिंदी कविता (chuhe jab bante hain-hindi kavita rat and king-hindi poem)

बादशाह बनने का ख्वाब
देखता है पूरा ज़माना,
मगर कोई एक काबिल ही होता
जिसे मिलती है जहान की गद्दी
यह अलग बात है कि
नाकाबिलों को भी आता है
अपने इलाके को सल्तनत बताना।
कहें दीपक बापू
ठग बनते ठगी के सरताज,
मूर्ख अपनी हरकतों को माने
दुनियां का राज,
सोने के सिक्के संदूकों में छिपाकर,
लूट का माल अपने नाम लिखाकर,
हल्दी की गांठ मिलते ही
चूहों को भी आता है बादशाह बन जाना।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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Aug 28, 2012

अंतर्मन की धारा-हिंदी कविता (Antarman kee dhara-hindi kavita)

उनको समंदर की तरह
गहरा कहा जाता है,
इसलिये उनके घर से
हर कोई लौट जाता है प्यासा,
पानी उनकी तिजोरी में बंद है
खारा हो गया है,
मगर उनके मन में अभी तक बची पिपासा।
कहें दीपक बापू
 आम इंसान की भलाई की
जो शपथ उठा लेता है
हीरों का ताज पहनने के लिये वह नहीं  तरसता,
सिंहासन के लिये उस पर लोभ नहीं बरसता,
न नारे लगाता है,
न वादे बजाता है,
उसके अंतर्मन में बहती पवित्र जल की धारा
ज़माने का भला किये बिना
रहता है वह प्यासा।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश




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Aug 19, 2012

वर्षा ऋतू और इन्सान-हिंदी कविता (varsh ritu par kavita a poem on rain season)

बरसात का मौसम है
चलना जरा संभल कर
वरना फिसल जाओगे,
यह पक्षियों में इश्क के लिये है
तुम बचना अपनी अदाओं से
वरना पछतओगे।
कहें दीपक बापू
इंसान अगर अक्लमंदा हो तो
हर मौसम में मजे ले सकता है,
शोर शराबे और भागमभाग में
जो लूटना चाहता है खुशी
वह अपने जाल में फंसता है,
पक्षियों की तरह उड़ नहीं सकते,
पक्षुओं के मुकाबले में दौड़े में नहीं लगते,
अपनी सीमायें समझो
आनंद ही आनंद उठाओगे।
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पलायन से भारतीय समाज विशेषज्ञों को चेत जाना चाहिए-हिन्दी लेख (palayan se bhartiya samaj visheshgyon ko chet jana chahiye-hindi lekh)


         कुछ राज्यों में स्थापित पूर्वोत्तर भारत के निवासियों का केवल अफवाहों और धमकियों के आधार पर पलायन करना देश के बौद्धिक लोगों के लिये आश्चर्य का विषय है।  कुछ धमकियां वह भी केवल अनजान लोगों से एसएमएस या वेबसाईट पर मिलने वाले धमकी भरे संदेशों  पर इस तरह उनका पलायन उनके प्रति हमदर्दी से अधिक देश की एकता के लिये चिंता पैदा करने वाला है।  यह धमकियां मिली हैं पर अभी भी एक घटना ऐसी नहीं है जिससे इन संदेशों का जोड़ा जा सके। ऐसे में यह हैरानी और चिंता का विषय है।
     इस पलायन का जो भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक पहलू हो हम उस विचार कर अपनी राय दे सकते हैं पर लगता नहीं कि किसी निष्कर्ष से इस पलायन को समझा जा सके। एक दो या पचास लोगों की बात हो तो मान लिया जाये कि विश्व में आंतक का वातावरण है इस वजह से हो रहा है पर जहां हजारों की संख्या हो वहां यह बात हजम नहीं होती।  पलायन से अपने को सुरक्षित समझने वाले यह लोग आपस में ही संगठित होकर स्थापित जगह पर भी रह सकते हैं।  हमारे देश में कानून व्यवस्था की स्थिति अन्य देशों की तुलना में बदतर हो सकती है पर वह इतनी भी नहीं है कि यहां पाकिस्तान जैसी हालत हो।  हमारे देश का नागरिक  प्रशासन पड़ौसी देशों की तुलना में बेहतर है।  ऐसे में यह पलायन किसी तर्क के आधार पर समझ में नहीं आ रहा।
      इस पलायन को सोशल नेटवर्किंग साईटों को जिम्मेदार ठहराना भी गलत है।  जो इंटरनेट पर लंबे समय से सक्रिय हैं वह  तालियां और गालियां दोनों ही झेलने के आदी हैं।  भला और अकेला आदमी दूसरे की साईट पर क्या बदतमीजी करेगा या धमकी देगा बल्कि वह तो अपनी साईट पर ही गंदी बातें लिखने से बचता है। हालांकि  अगर कोई शरारती तत्व अपनी पर आ जाये तो अकेला ही बीस साईटें बनाकर या सौ कमेंट कर दूसरे को हिला सकता है।  कहने का अभिप्राय यह है कि इंटरनेट का जितना व्यापक क्षेत्र हे उतना ही शक्तिशाली है। मगर यह अभासी दुनियां ही है। यह अगर भला आदमी अकेला है तो शरारती तत्व भी कोई अधिक नहीं है।  यह अलग बात है कि भली बात कहने से लोग कम ध्यान देते हैं और अंटसंट हो तो ज्यादा लोग उस पर दृष्टिपात करते हैं।  तालियां-यानि वाह वाह और बहुत अच्छा जैसे शब्द-कोई नहीं देखता गालियों पर सबकी नजर जाती है।  किसी को प्यारे करो तो लोग मुंह फैर लेते हैं और दुत्कारेां तो आंखें फाड़कर मजे लेते हैं।

         इन पलायन की घटनओं में तो हमें एक ही बात समझ मे आती है।  मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि कंप्यूटर और मोबाइल से अधिक जुड़े रहना दिमागी रूप से कमजोर करता है। हम अपने आसपास के अनुभव से इसकी पुष्टि भी करते हैं।  ंचद लोगों को धमकी भरा एसएमएस मिला होगा। किसी को  ईमेल भी मिला होगा। ऐसे लोग अपने कंप्यूटर या मोबाइल से अधिक चिपटने वाले होंगे।  उनकी दिमागी स्थिति क्या होगी यह तो वही जाने पर हमारा मानना है कि उनके कहने पर बाकी  वह लोग भी बिदकते होंगे जो इन दोनेां माध्यमों की असलियत से वाकिफ नहीं हों।  मोबाइल तथा कंप्यूटर पर काम करने वाला दिमागी रूप से भले तीक्ष्ण हो पर शारीरिक रूप से अधिक सक्रिय रहने की उसकी क्षमता नहीं रहती।  ऐसे में इस तरह धमकियां देने वालों का दैहिक रूप से प्रकट होकर उनको अंजाम देना मुश्किल काम है ऐसा हमारा मानना है।  एक भी ऐसी घटना नहीं हुई यह इसका प्रमाण है। इतने लोग भाग रहे हैं उससे  भी इसकी पुष्टि होती है कि अपनी दैहिक शक्ति को उन्होंने कीड़ों मकोड़ों जितनी समझ लिया है।  हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि यह हमारे समाज की कमजोर मानसिक दशा को  प्रमाणिम करने वाला पलायन हैं।
      देश में हैरानी और चिंता है। पलायन करने वालों से हमदर्दी का वातावरण तो तब बने जब अफवाहों का कोई प्रकट रूप दिखाई दे।  सीधी बात कहें तो अफवाह फैलाने वलों से इतनी चिंता नही है जितनी पलायन करने वालों के कृत्य से हैरानी है।  कहते हैं कि बंद मुट्ठी लाख की खुल जाये तो खाक की।  इससे हमारे समाज की कमजोर मानसिक दशा सामने आ रही है।  ऐसा लगता है कि अपराधिक गिरोह कोई नया प्रयोग कर रहे हैं।  वह इस तरह एक समूह को डरा सकते हैं- यह अनुभव उन्हें भविष्य में सहायक हो सकता है।  इसलिये अपनी सलाह तो यह है कि मोबाईल कंप्यूटर पर सक्रिय लोग इसे एक आभासी दुनियां ही माने।  प्यार मिलें तो खुश न हों और गाली मिले तो उसे ध्वस्त कर दो।  अंतर्जाल अपने समाज के दुश्मनों को ढूंढने की बजाय उनकी उपेक्षा कर दो।  बेशर्म बन जाओ ताकि धमकाने वाला थकहारकर चुप बैठ जाये। अगर वह अधिक प्रयास करेगा तो अपनी ही बुद्धि तथा ऊर्जा का क्षरण कर शीघ्र पतन को प्राप्त होगा।  दूसरी बात यह कि अंतर्जाल पर इस तरह की धमकियां देने या अश्लीलता फैलाने वालों से सखती से निपटना होगा।   हालांकि हम भी जानना चाहेंगे कि क्या केवल अफवाहों पर इतना बड़ा पलायन हो सकता है।  अगर इसक उत्तर हां है तो भारतीय सामाजिक विशेषज्ञों का चेत जाना चाहिए।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Aug 13, 2012

अपने अपने अहसास-हिन्दी कविता (apne apne ahasas-hindi poem kavita)

महलों में रहने वालों को
बरसात में छत टपकने के अहसास नहीं होते,
आसमान की हवा में
विमानों में उड़ते है जो लोग
सड़क पर उनके पांव में
कांटे चुभने के अहसास नहीं होते।
कहें दीपक बापू
हमने गुजारी जिंदगी आम आदमी की तरह
इसलिये खास रास्तों से गुजरने का
सुख कभी नसीब नहीं होता
मगर कहीं से नीचे गिरने के खौफ के
अहसास भी कभी नहीं होते।
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Jul 29, 2012

रौशनी और सनसनी-हिन्दी शायरी (roshni aur sansani-hindi poem or shayari)

रौशनी का चिराग रखा
अंधेरी गली में
मुसाफिरों को रास्ता दिखाने के लिये
किसी ने तारीफ नहीं की
लगाई आग जिन्होंने सड़क पर
मशहूर हो गये,
सनसनी फैलायी जिन्होंने
लोगों के जज़्बातों का कत्ल कर
कभी चमक रहे पर्दे पर
कभी मंच पर चढ़ रहे हैं,
दर्द बांटते रहे
सहलाते रहे जख्म
पूरे ज़माने का
भीड़ में कहीं इसलिये खो गये।
कहें दीपक बापू
दुनियां मे जुल्म करने वाले
कसूरवार नहीं है,
आदी हो गये हैं जमाने के लोग
मर मरकर जीने के
फिर सजा देने वाले
फरिश्ते भी अब उनके हमदर्द हो गये।
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Jun 2, 2012

सोने के पत्थर-हिन्दी कविता (sone ke patthar-hindi kavita)

सत्ता के मद में
बड़े बड़े बुद्धिमान अंधे हो जाते हैं,
नशा केवल शराब का नहीं होता
लोग अपनी कामयाबी देखकर भी
पागल हो जाते हैं।
कहें दीपक बापू
शरीर की बीमारी के इलाज की दवा
बिकती  हर बाज़ार में
मगर जिनके दिमाग में भर गये
सोने के पत्थर
वह ज़माने के जज़्बातों पर
पत्थर बरसाये जाते हैं
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Apr 2, 2012

किसे हाल सुनायें-हिन्दी कविता (kise hal sunaen-hindi kavita)

किसे क्या सुनायें
लोगों के कान खुले दिखते हैं
पर सुरों का अंदर पहुंचना वर्जित है,
किसको क्या क्या दिखायें,
लोगों की आंखें खुली हैं
पर दृश्यों का पहुंचना वर्जित हैं,
कहें दीपक बापू
मतलब के इर्दगिर्द सिमट गया हैं जमाना
किससे मुलाकात कर दर्द बयान करें अपना
इंसानों के शरीर मेकअप से सज रहे हैं
पर जज़्बातों का अंदर पहुंचना वर्जित हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Mar 13, 2012

होली के अवसर पर लिखी गई कविता (holi ke avasar par likhe gaye kavita)

सड़क पर उड़ते रंगों में
नहाने से अब हमारा दिल नहीं भरता।
रंगीन चेहरों की पीछे
कहाँ काली नीयत छिपी है
यह सोच यूं अपना दिल डरता।
कहें दीपक बापू
होली खेलने में वक्त खराब करना अब नहीं सुहाता
आओ
कुछ चिंतन करें,
अपनी सोच और ख़यालों में
नए नए रंग भरें,
पूरी ज़िंदगी रंगीन हो,
कभी न गमगीन हो,
पानी में घुले रंग
साबुन से आज ही मिट जाएँगे,
फिर कल हालातों से पिटते नज़र आएंगे,
दिल से ही चुनो अपने अंदर ऐसे रंग
जो किसी साबुन से नहीं मरता।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Feb 27, 2012

आंदोलन की रेल यार्ड से बाहर आने की तैयारी में-हिन्दी लेख (bhrashtachar virodhi aandolan kee nayi taiyari-hindi lekh)

            टीवी या अखबार पर कोई समाचार देखकर ब्लॉग पर लिखना अपने आप मे एक अजीब परेशानी के साथ ही आश्चर्य भी पैदा करता है। हमने अन्ना हजारे के आंदोलन पर कल एक लेख लिखा था कि प्रचार माध्यमों ने उसे रेल की तरह यार्ड में खड़ा कर दिया है क्योंकि इस समय उत्तरप्रदेश में चुनाव चल रहे हैं जिसके कारण उनके पास विज्ञापन दिखाने के लिये पर्याप्त सामग्री है और जब उनके पास अपने प्लेटफार्म पर कोई सनसनीखेज मनोरंजन समाचार नहीं होगा तब वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को नयी साज सज्जा के साथ लायेंगे। इस लेख को लिखे एक घंटा भी नहीं हुआ था कि अन्ना हजारे साहेब के सेनापति का बयान आया जिसमें जनप्रतिनिधि सभाओं पर ही आक्षेप कर डाले। इसी कारण उनसे अनेक लोग नाराज हो गये। तत्काल इस विषय पर बहस प्रारंभ हो गयी। मतलब यह कि इधर उत्तरप्रदेश में चुनाव समाप्त होने की तरफ हैं तो इधर अब आंदोलन को एक बार फिर चर्चा में लाने का प्रयास भी शुरु हो गया।
इस विवादास्पद बयान को अन्ना साहेब के सेनापति ने ट्विटर पर भी जारी किया। प्रचार माध्यम आम ब्लाग लेखकों के साथ ही ट्विटर तथा फेसबुक वालों की तरफ ताकते नहीं है इसलिये यह कहना पड़ता है कि उनकी नज़र में बाज़ार से प्रायोजित लोग ही महत्वपूर्ण होते हैं। अब अन्ना जी के सेनापति साक्षात्कार भी आने लगे हैं। आरोपी और अपराधी में अंतर होना चाहिए, यह तक अब सुनाया जा रहा हैं। एक उद्घोषक ने सेनानति से पूछा कि-‘‘आप अब चुनाव खत्म होते ही अपनी छबि चमकाने के लिये पुनः अवतरित होने के लिये ऐसा बयान दे रहे हैं।’’
              सेनापति का बयान था कि‘‘इस तरह का बयान तो हम पहले भी दे चुके हैं, अब आप ही इसे तूल दे रहे हैं।’’
इस वार्तालाप से जाहिर है कि अगर अन्ना हजारे के समर्थक प्रचार समूहों से प्रायोजित नहीं है तो यह बात तो प्रमाणित होती है कि प्रचार प्रबंधक कहीं न कहीं स्वतः ही उनका उपयोग करने की कला में माहिर हैं। हम अन्ना हजारे के आंदोलन पर करीब से नज़र रखते रहे हैं। जिस तरह अन्ना के सक्रिय साथी और प्रचार माध्यम    एक साथ सक्रिय हुए इससे फिक्सिंग का संदेह आम आदमी को भी होगा इसमें संशय नहीं हैं।
             देश में भ्रष्टाचार हटना चाहिए इस तर्क से तो सहमति है पर कार्यप्रणाली को लेकर हमारा विचार थोड़ा अलग है। थोड़ा डरते हुए भी लिख रहे हैं बल्कि कहना चाहिए कि हमारी और उनकी सोच में ही मूलभूत अंतर है। बहरहाल अब यह देखना है कि प्रचार प्रबंधक किस तरह इस आंदोलन को भुनाते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बिग बॉस की तरह यह भी फ्लाप योजना साबित न हो। इधर कॉमेडी सर्कस भी फ्लाप हो रहा है। सच कहें तो हमारे देश में मसखरे बहुत हैं पर मसखरी लिखना भी एक कला है जो विरलों को ही आती है। प्रचार प्रबंधकों के लिये इस समय सबसे बड़ा संकट यह होगा कि वह किस तरह कोई ऐसा विषय लायें जिससे देश के जनमानस को व्यस्त रखा जा सकें। 
                अन्ना हज़ारे का आंदोलन बाज़ार और प्रचार प्रबंधकों की सोची समझी योजना का एक भाग है-यह संदेह हमेशा ही अनेक असंगठित स्वतंत्र लेखकों को रहा है। जिस तरह यह आंदोलन केवल अन्ना हजारे जी की गतिविधियों के इर्दगिर्द सिमट गया और कभी धीमे तो कभी तीव्र गति से प्रचार के पर्दे पर दिखता है उससे तो ऐसा लगता है कि जब देश में किसी अन्य चर्चित मुद्दे पर प्रचार माध्यम भुनाने में असफल हो रहे थे तब इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की रूपरेखा इस तरह बनाई कि परेशान हाल लोग कहीं आज के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, कला, टीवी तथा फिल्म के शिखर पुरुषों की गतिविधियों से विरक्त न हो जायेे इसलिये उनके सामने एक जननायक प्रस्तुत हो जो वस्तुओं की बिक्री बढ़ाने वाले विज्ञापनों के बीच में रुचिकर सामग्री निर्माण में सहायक हो। हालांकि अब अन्ना हज़ारे साहब का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब जनमानस में अपनी छबि खो चुका है पर देखने वाली बात यह है कि प्रचार माध्यम अब किस तरह इसे नई साज सज्जा के साथ दृश्य पटल पटल पर लाते हैं।
           जब अन्ना हजारे का आंदोलन चरम पर था तब भी हम जैसे स्वतंत्र आम लेखकों के लिये वह संदेह के दायरे में था। यह अलग बात है कि तब शब्दों को दबाकर भाव इस तरह हल्के ढंग से लिखे गये कि उनको समर्थन की आंधी का सामना न करना पड़े। इसके बावजूद कुछ अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि वालों लोगों ने उसे भारी ढंग से लिया और आक्रामक टिप्पणी दी। इससे एक बात तो समझ में आयी कि हिन्दी में गूढ़ विषय को हल्के ढंग से लिखने पर भी यह संतोष मन में नहीं पालना चाहिए कि बच निकले क्योंकि अभी भी कुछ लोग हिन्दी पढ़ने में महारत रखते हैं। अभी अन्ना साहब को कहीं सम्मान मिलने की बात सामने आयी। सम्मान देने वाले कौन है? तय बात है कि बाज़ार और प्रचार शिखर पुरुषों के बिना यह संभव नहीं है। इसे लेकर कुछ लोग अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रायोजित होने का प्रमाण मान रहे तो उनके समर्थकों का मानना है कि इससे- क्या फर्क पड़ता है कि उनके आंदोलन और अब सम्मान के लिये पैसा कहां से आया? मूल बात तो यह है कि हम उनके विचारों से सहमत हैं।
             हमारी बात यहीं से शुरु होती है। कार्ल मार्क्स सारे संसार को स्वर्ग बनाना चाहते थे तो गांधी जी सारे विश्व में अहिंसक मनुष्य देखना चाहते थे-यह दोनों अच्छे विचार है पर उनसे सहमत होने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इन विचारों को वास्तविक धरातल क्रियाशील होते नहीं देखा गया। भ्रष्टाचार पर इंटरनेट पर हम जैसे लेखकों ने कड़ी हास्य कवितायें तो अन्ना हजारे के आंदोलन से पहले ही लिख ली थीं पर उनसे कोई इसलिये सहमत नहीं हो सकता था क्योंकि संगठित बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये फोकटिया लेखक और समाजसेवक के प्रयास कोई मायने नहीं रखते। उनके लिये वही लेखक और समाजसेवक विषय वस्तु बन सकता है जिसे धनोपार्जन करना आता हो। सम्म्मान के रूप में भारी धनराशि देकर कोई किसी लेखक को धनी नहीं बनाता न समाज सेवक को सक्रिय कर सकता है। वैसे भी कहा जाता है कि जिस तरह हम लोग कूड़े के डिब्बे में कूड़ा डालते हैं वैसे ही सर्वशक्तिमान भी धनियों के यहां धन बरसाता है। स्वांत सुखाय लेखकों और समाजसेवकों को यह कहावत गांठ बांधकर रखना चाहिए ताकि कभी मानसिक तनाव न हो।
           उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं। विज्ञापनों के बीच में प्रसारण के लिये समाचार और चर्चा प्रसारित करने के लिये बहुत सारी सामग्री है। ऐसे में प्रचार समूहों को किसी ऐसे विषय की आवश्यकता नही है जो उनको कमाई करा सके। यही कारण है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को वैसे ही यार्ड में सफाई आदि के लिये डालकर रखा गया है कि जब प्लेटफार्म पर कोइ गाड़ी नहीं होगी तब इसे रवाना किया जायेगा। यह गाड़ी प्लेटफार्म पर आयेगी इसकी यदाकदा घोषणा होती रहती है ताकि उसमें यात्रा करने वाले यात्री आशा बांधे रहें-यदा कदा अन्ना हजारे साहब के इस अस्पताल से उस अस्पताल जाने अथवा उनकी अपने चेलों से मुलाकात प्रसारित इसी अंदाज में किये जाते हैं। ऐसा जवाब हमने अपने उस मित्र को दिया था जो अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की स्थिति का आंकलन प्रस्तुत करने को कह रहा था।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Feb 16, 2012

भलाई का कम और दाम -हिन्दी शायरी (bhalai ka dam-hindi shayari)

कसाई पशुओं का कत्ल
और वेश्या अपना जिस्म
बेचने के लिए अब भी
यूं ही बदनाम हैं,
पर्दे की पीछे कत्ल और
जिस्मफ़रोशों का धंधा करने वालों को
चौराहे पर मिलता सम्मान है।
कहें दीपक बापू
अब कोई भलाई का काम
बिना दाम लिए नहीं करता,
आँसू पोंछने के लिए हो
या मुस्कराहट बिखेरने के लिए
लोग तभी बाहर आते हैं
जब मिलता नामा और नाम है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Feb 10, 2012

यह दुनियाँ-हिन्दी शायरियाँ (yah duniya-hindi shayriyan, kavitaen or poem)

प्यार के सौदे किए जाते हैं,
खरीद फरोख्त की चीजों को नाम भी
इज्जते वाले दिये जाते हैं।
कहें दीपक बापू
इस दुनियाँ में
इश्क का खज़ाना अपने दिल में देखो
खुद पर मुस्कराओ
अपनी बात पर हंसो
मत बजाओ ताली
उनको देखकर
जो मुस्कराहट का सौदा किए जाते है।
-------------------
सभी व्यस्त हैं
मतलबपरस्ती में,
डूबे हैं अपनी मस्ती में,
मगर बेहतर इंसान दिखने के लिए
पाखंड करने का समय निकाल ही लेते हैं।
कहें दीपक बापू
हमने देखा है
पल पल में रंग बदलती इस दुनियाँ को
जहां गिरगिट भी शर्मा जाये
लोग बदलते हैं अपनी नीयत पल पल
जहां तारीफ मिलती हो
वहाँ लूटने के लिए बढ़ाते हाथ
मगर अपने घर के बिगड़े काम का
इल्ज़ाम भी दोस्तों पर डाल देते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 29, 2012

प्रकृति और संवेदनाएँ-हिन्दी कविता (prakrati aur samvedanen-hindi kavita or poem)

पत्थरों के घर
दीवारें रंगीन हैं,
लकड़ी और लोहे के सामान से
सजी बैठक,
खिड़की से सर्दी की धूप अंदर झांक रही है,
उसके स्पर्श का आनंद
ले सकता है कौन।
कहें दीपक बापू
जिनके दिल में स्पंदन है
बस अपनी चाहतों के लिए,
दिमाग में बसी है
सामानों को खोजने की योजनाएं,
प्रकृति उनकी  नज़र में एक अमर मुर्दा है
उन मांस के बुतों की
संवेदनाएँ हैं मौन।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 21, 2012

तड़प-हिन्दी शायरियाँ (hindi shayriyan)

भीड़ का शोरशराबा देखकर
अब अपनी तन्हाई की तड़प नहीं सताती है,
कहें दीपक बापू
अकेलेपर से घबड़ाये लोग
ढूंढते हैं मेलों में खुशी का सामान
खरीदते ही हो जाता जो पुराना
फिर दौड़ते हैं दूसरी के लिये
उम्र उनकी भी ऐसे ही
तड़पते बीत जाती है
....................................
उन दोस्तों के लिये क्या कहें
जिनसे छिपने की कोशिश हम करें
वह हमारे ठिकानों को ढूंढ ही डालते हैं,
कहें दीपक बापू
अपना चेहरा लेकर
बदल बदल कर अदाएँ
वह हर जगह सामने आते हैं
जिनसे मिलना हमेशा हम टालते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 10, 2012

सेवक और पहरेदार-हिन्दी हाइकु (sewak aur paharedar-hindi haiku or kaivta)

उनके पेट
कभी नहीं भरेंगे
जहरीले हैं,

रोटी की लूट
सारे राह करेंगे
जेब के लिए,

मीठे बोल हैं
पर अर्थ चुभते
वे कंटीले हैं।
--------------

फिर आएंगे
वह याचक बन
कुछ मांगेंगे,
दान लेकर

वह होंगे स्वामी

हम ताकेंगे,

हम सोएँ हैं
बरसों से निद्रा में
कब जागेंगे,

सेवक कह
वह शासक होते
भूख चखाते

पहरेदार
अपना नाम कहा
लुटेरे बने

लूटा खज़ाना
आँखों के सामने है
कब मांगेंगे।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Jan 7, 2012

श्रीमद्भागवगत गीता और अर्थशास्त्र-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (shri madbhagwat gita and economics or shri madbhagvat geeta aur arthshastra-hindi vyangya chinttan lekh or satire thought article)

                कथित रूप से एक अर्थशास्त्री और लंदर स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के एक भारतीय प्रोफेसर का मानना है कि गीता का उदाहरण पेश कर अहिंसा की बात नहीं की जा सकती है। उनका यह भी है कि गीता का अंतिम अर्थ यही निकलता है कि हर आदमी एक दूसरे को मारने के लिये निकल पड़े। योग साधना में रत गीता साधकों के लिये यह बयान हास्यासन करने के लिये एक उपयुक्त विषय हो सकता है। जब गीता के विषय पर किसी के अनर्गल बयान पर लिखने का मन आता है तो लगता है कि एक जोरदार हास्य व्यंग्य लिखा जाये पर यह संभव नहीं होता क्योंकि तब उसमें वर्णित कुछ बातों का अनचाहे जिक्र कर यह बताना पड़ता है कि उसके संदेश आज भी प्रासंगिक हैं तब चिंत्तन अपना काम करने लगता है। वैसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान का केवल उनके भक्तों में ही प्रचार करें पर हम इस आज्ञा का यह देखकर उल्लंघन कर जाते हैं कि बरसों से इस संसार में विराजी श्रीमद्भागवत गीता को पहले तो लोग अपने घर में स्वयं के धाार्मिक होने के प्रमाण में ही रखते हैं और भगवान को प्रसन्न करने के लिये हाथ भी लगाते हैं तो अध्ययन करने के बाद उसे नहीं समझ पाते तब हमारे लिखने से कुछ होने वाला नहीं है। हमने लिखा पर मान लेते हैं कि कुछ नहीं लिखा।
              प्रोफेसर साहब महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों पर बोलने के लिये बुलाया गया था। उनका यह मानना था कि जो गांधी श्रीगीता के प्रशंसक थे वह अहिंसा के प्रवर्तक नहंी माने जा सकते क्योंकि वह हिंसा के लिये प्रेरित करती है। एक बात निश्चित है कि भारतीय होकर विदेश के किसी विश्वविद्यालय से जुड़े होने के अलावा उन प्रोफेसर की दूसरी कोई योग्यता नहीं हो सकती। यहां अर्थशास्त्र के ज्ञाता बहुत हैं पर प्रसिद्ध सभी नहीं है। बाज़ार और प्रचार प्रबंधक केवल उन लोगों को अपने मंचों पर स्थान देते हैं जो या तो स्वयं ही कला, साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज सेवा तथा फिल्म में लोकप्रियता कर चुके हों या फिर किसी विदेशी संस्था से जुड़े होने के साथ ही विदेश से सम्मान प्राप्त हों। अपनी तरफ से किसी व्यक्ति को महान बनाना उनका लक्ष्य नहीं रहता। यह प्रोफेसर साहब भी इसी तरह के रहे होंगें। उन्होंने न कभी गीता पढ़ी है न पढ़ेंगे। संभव है कि भारतीय धर्म को बदनाम करने के लिये श्रीगीता पर बहस छेड़ने का नाम इस तरह का तरीका अपनाया गया हो। हमने उन प्रोफेसर साहब का नाम इसलिये नहीं लिखा क्योंकि लगता है कि प्रचार कर्म में फिक्सिंग का खेल भी चलता है और हमें यहां लिखने का कोई आर्थिक लाभ-इसे कर्म फल से मत जोड़ियेगा-नहीं है। इसलिये किसी विषय के समर्थन या आलोचना में किसी का नाम नहीं लिखते।
         श्रीमद्भागवत गीता पर हमारे कई चिंत्तन हमारे बीस ब्लॉग पर लिखे जा चुके हैं। उनमें हम एक जगह लिख चुके हैं कि महाभारत युद्ध के दौरान जितनी भी हिंसा हुई वह भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सिर पर ली थी। गांधारी के शाप को शिरोधार्य किया। उनके द्वारका शहर का पूरा परिवार और प्रजा नष्ट हो गयी। अंततः उन्होंने एक शिकारी का बाण अपने पांव पर लेकर देह यहीं त्याग कर परमधाम गमन किया। श्रीमद्भागवत गीता के उपदेश के समय उन्होंने अर्जुन को यह स्पष्ट कहा था कि इस हिंसा का पाप तुम मुझे समर्पित करो। अर्जुन ने जब परमधाम गमन करते हुए युधिष्ठर से अपनी गति का कारण पूछा तो उसके उत्तर में उन्होंने यह नहीं कहा कि महाभारत युद्ध की हिंसा का अपराध उनकी दुर्दशा का कारण है। स्पष्टतः श्रीकृष्ण ने उस हिंसा को अपनी अवतारी देह पर इसलिये लिया क्योंकि वह उन्होंनें धारण की थी। अब भगवान श्रीकृष्ण ऐसी हिंसा का अपराध लेने के लिये कोई सदेह उपस्थित नहीं है-यह अलग बात है कि वह आज भी भारतीय जनमानस में विराजे हैं-जिससे कि वह अपने भक्तों की हिंसा का हिसाब चुकायें। इतनी बात तो हर भारतीय ज्ञानी जानता है इसलिये कभी अपने संदेश से किसी को हिंसा के लिये प्रेरित नहीं करता।
        जब वह प्रोफेसर विदेश में कार्यरत हैं तो तय बात है कि वहां के वातावरण का ही उन पर प्रभाव होगा। चेले चपाटे और संगी साथी भी ऐसे ही होंगे जो श्रीगीता के बारे में इधर उधर से सुनकर अपनी राय बनाते होंगे। उनकी सोच महाभारत युद्ध से पहले श्रीकृष्ण के अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करने के लिये उपदेश देने की घटना लगने के साथ ही युद्ध के बाद हुए परिणामों पर ही केंद्रित होती है। ऐसे में उनकी बात पर बहस छेड़ना भी मूर्खता है। यह अलग बात है कि कहीं भारतीय धर्म गंथों कोे बदनाम करने के लिये कहीं कोई प्रचार योजना फिक्स हुई हो। अभी रूस में इस्कॉन के संस्थापक के गीता संस्करण पर रोक का मामला सामने आया था तब प्रचार तंत्र ने खूब उसे भुनाया।
     सच बात कहें तो आधुनिक अर्थतंत्र और अर्थशास्त्रियों के लिये श्रीगीता के संदेश विष की तरह हैं। अर्थशास्त्रियों के लिये हीं वरन् शारीरिक विज्ञान शास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र तथा तमाम शास्त्रों का ज्ञान भी श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित है। अगर श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने वाले कहंी लोग पूरे विश्व में अधिक हो गये तो आधुनिक ज्ञान शास्त्रियों को मूर्ख समझने लगेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेशों में योग का प्रचार किया है जिसके आठ भाग हैं। उनमें एक यम भी है जिसमें अहिंसा तत्व प्रमुख रूप से बताया जाता है। ऐसे में श्रीगीता के साथ महाभारत युद्ध को जोड़ना गलत है।
        अपने को लेकर हमें कोई खुशफहमी नहंी है पर हम भी क्या करें? जब श्रीगीता को लेकर विवाद उठता है तो हमारा ध्यान उस आदमी के नित्य कर्म की तरह जाता है। वह जिस विषय या विद्या का ज्ञाता हो हम उसे श्रीगीता के संदेशों में देखने लगते हैं। तब लगता है कि जैसे सारे विषय श्रीमद्भागवत गीता में समाहित हैं।
आखिरी बात यह कि आधुनिक अर्थशास्त्र में कहा जाता है कि उसमें दर्शनशास्त्र का अध्ययन नहीं किया जाता। इसका सीधा मतलब यह है कि उन प्रोफेसर साहब ने गीता को नहीं पढ़ा। हमने उनका नाम इसलिये भी नहीं लिखा क्योंकि अगर हमारा यह विचार कोई उनको बता दे कि श्रीमद्भागवत् गीता का ज्ञान हो जाये तो सारे एक ही आदमी सारे शास्त्रों का ज्ञाता हो जाता है। उसमें कहीं दर्शनशास्त्र भी हो सकता है पर इतना तय है कि उसमें जो अर्थशास्त्र के सिद्धांत है वह कहीं अन्यत्र नहीं मिल सकते। ऐसे में प्रोफेसर के प्रायोजक और समर्थक कहीं उनको सही साबित करने के लिये कोई बड़ी प्रायोजित बहस न करा दें। बहरहाल जिन लोगों को श्रीमद्भागवत गीता पर हमारे विचार पढ़ना हो वह दीपक भारतदीप और श्रीमद्भागवत गीता शब्द डालकर सर्च इंजिनों मे ढूंढ सकते हैं। एक गीता साधक के रूप में हमेशा ही ऐसे लोगों की बातें हैरान करती हैं जो उसे पढ़ते बिल्कुल नहीं और पढ़ते हैं तो समझते नहीं और समझते हैं तो सही रूप में व्यक्त नहीं कर पाते क्योकि वह उनकी धारणा शक्ति से परे होती है। हम परेशान नहीं होते क्योंकि एक गीता साधक में इतनी शक्ति तो आ ही जाती है कि वह ऐसी बातों से विचलित नहीं होता। ब्लॉग पर श्रीमद्भागत गीत के विषय पर लिखने का जब अवसर उपस्थित होता है तो लगता है कि यह सौभाग्य हमें ही मिल सकता है।
इस विषय पर इस लेखक का यह ब्लॉग और उसका पाठ अवश्य पढ़ें।  
सामवेद से संदेश-तुम प्रतिदिन युद्ध करते हो (samved-tum pratidin yuddh karte ho-samved se sandesh)
           श्रीमद्भागवत गीता के आलोचक उसे युद्ध से उपजा मानकर उसे तिरस्कार करते हैं पर शायद वह नहीं जानते कि आधुनिक सभ्यता में भी युद्ध एक व्यवसाय है जिसे कर्म की तरह किया जाता है। सारे देश अपने यहां व्यवसायिक सेना रखते हैं ताकि समय आने पर देश की रक्षा कर सकें।
         भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय श्री अर्जुन से कहा था कि अभी तू युद्ध छोड़ देगा पर बाद में तेरा स्वभाव इसके लिये फिर विवश करेगा। अर्जुन एक योद्धा थे और उनका नित्य कर्म ही युद्ध करना था। जब श्रीकृष्ण उसे युद्ध करने का उपदेश दे रहे थे तो एक तरह से वह कर्मप्रेरणा थी। मूलतः योद्धा को क्षत्रिय माना जाता है। इसे यूं भी कहें कि योद्धा होना ही क्षत्रिय होना है। इसलिये श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म प्रेरणा दी है यह अलग बात है कि युद्ध करना उसका स्वाभाविक कर्म था। श्रीमद्भागवत में कृष्ण यह भी कहते हैं कि अपने स्वाभाविक कर्म में लगा कोई भी व्यक्ति हो-कर्म के अनुसार क्षत्रिय, ब्राह्मण वैश्य और शुद्र का विभाजन माना जाता है-मेरी भक्ति कर सकता है। इस तरह श्रीमद्भागवत गीता को केवल युद्ध का प्रेरक मानना गलत है बल्कि उसके अध्ययन से तो अपने कर्म के प्रति रुचि पैदा होती है। इसी गीता में अकुशल और कुशल श्रम के अंतर को मानना भी अज्ञान कहा गया है। आजकल हम देखते हैं कि नौकरी के पीछे भाग रहे युवक अकुशल श्रम को हेय मानते हैं।
सामवेद में कहा गया है कि
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अभि विश्वानि काव्या
‘‘सारे सुकर्म कर।’
दिवे दिवे वाजं सस्निः।
‘‘प्रतिदिन तुम युद्ध करते हो।’’
मो षु ब्रह्मेव तन्द्रर्भवो।
‘‘आत्मज्ञानी बनकर कभी आलसी मत बनना।’’
             मनुष्य अपनी देह पालन के लिये कर्म करता है जो युद्ध का ही रूप है। हम आजकल सामान्य बातचीत में यह बात मानते भी हैं कि अब मनुष्य का जीवन पहले की बनस्पित अधिक संघर्षमय हो गया है। जबकि हमारे वेदों के अनुसार तो हमेशा ही मनुष्य का जीवन युद्धमय रहा है। जब हम भारतीय अध्यात्म में वर्णित युद्ध विषयक संदर्भों का उदाहरण लेते हैं तो यह भी देखना चाहिए कि उन युद्धों को तत्कालीन कर्मप्रेरणा के कारण किया गया था। इतना ही नहीं इन युद्धों को जीतने वाले महान नायकों ने अपने युद्ध कर्म का नैतिक आधार भी प्रस्तुत किया था। वह इनको जीतने पर राजकीय सुविधायें भोगने में व्यस्त नहीं हुए वरन् उसके बाद समाज हित के लिये काम करते रहे।
      संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।