कुछ शेर ही जुबान से
कहला कर दम लेता है
मैं भी उसे नहीं रोक पाता
बहने देता हूँ उसके भावों को
दिमाग मेरा किनारा कर लेता है
मैं जानता हूँ कि मन चंचल होता है
शेरों से अठखेलियां करता है
तो क्या बुरा करता है
बस चन्द अल्फाजों की
बस चन्द अल्फाजों की
ख़ुराक ही तो लेता है
मैं उसे तड़पाऊंगा
वह मुझे भटकाएगा
मैं शेर नहीं लिखूंगा
वह व्यसनों की तरफ भगाएगा
मैं मन को काबू में रखने की बात
मैं मन को काबू में रखने की बात
कभी नहीं मानता
दिमाग से उसकी दिशा तय
करना संभव है
पर मन को मारकर भला
कौन जीवन जीं लेता है
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सब कुछ पाकर भी मन
खुश क्यों नहीं होता
हर पल भटकाए जाता है
दौलत और शौहरत के
हिमालय पर पहुंचकर भी
उसे चेन क्यों नहीं आता है
वह उदास क्यों हो जाता है
कुछ सवाल उससे करो
कुछ करो अपने से
उत्तरों में ही रास्ता नज़र आता है
जब तुम स्वार्थ पूरा करते हो
वह परमार्थ चाहता है
जब तुम दुश्मन बनाते हो ज़माने को
वह दोस्त बनाना चाहता है
वह तड़पता है तुमसे बात करने को
तुम उसे अपनी ख्वाहिशों से ढक लेते हो
और वह उदास हो जाता है
2 comments:
वाह सर…बहुत अच्छी कविता है और मन की विशालता को भी आपने वेहद उम्दा तरीके से पेश किया है…
बेहद अच्छे तरीके से पेश किया है आपने मन के भावों को.. उसके द्वंद को.. सच में चैन कहीं नहि मिलता बाहर.. वो तो अंदर ही है कहीं..
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